Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
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स्व कार्य-समाधि योग को अच्छी प्रकार कर लेता है । उप्पीलियसरासणगहियाउहचावनिच्छयमईओ । विंधइ चंदगविज्झं, ज्ञायंतो अप्पणो सिक्खं ॥ १२८ ॥
धनुष्य ग्रहण कर उस पर खींच कर बाण चढाकर लक्ष्यको निश्चित कर अपनी शिक्षाका विचारक चंद्रकवेध्य-राधावेध को विंधता-साधता है । जइ य करेइ पमायं थोपि य अन्नचितदोसेणं । तह कयसंधाणो, वि य चंदगविज्झं न विधेइ ॥ १२९ ॥
परंतु वह धनुर्धर अपने चित्त को लक्ष्य से अन्यत्र ले जाने का प्रमाद करले तो प्रतिज्ञा बद्ध होते हुए भी चंद्रक वेध्य-राधाचंद्रक (आंख की कीकी) रूप वेध्य को छेद नहीं सकता । तम्हा चंदगविज्झस्स, कारणा अप्पमाइणा निच्चं । अविराहियगुणो अप्पा कायव्वो मुक्खमग्गमि ॥ १३० ॥
चंद्रकवेध्य के समान मरण समय में समाधि प्राप्त करने के लिए स्वयं की आत्मा को मोक्ष मार्ग प्रति अविराधित गुणवाला बनाना चाहिए । संमत्तलट्ठबुद्धिस्स, चरिमसमयंमि वट्टमाणस्स । आलोइयनिंदियगरहियस्स, मरणं हवइ सुद्धं ॥ १३१ ॥
सम्यग्दर्शन की दृढता से निर्मल बुद्धिवाला मुनि स्वकृत पाप की आलोचना, निंदा, गर्दा करनेवाले मुनि का मरण शुद्ध होता है । समाधि मरण होता है । जे मे जाणंति जिणाअवराहा नाणदंसण चरिते । ते सव्वे आलोए, उवडिओ सव्वभावेणं ॥ १३२ ॥
ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विषय में मेरे द्वारा जो अपराध हुए हैं वे जिनेश्वर भगवंत जानते हैं | उन अपराधों की आलोचना के लिए तीन योग तीन करण से उपस्थित हुआ हूँ। जो दुनि जीवसहिया, संभइ संसारबंधणा पावा । रागं दोसं च तहा, सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३३ ॥
संसार में बंध कारक जीव संबंधी राग-द्वेष रूप दो पाप को जो दूर करता है । वह मरण समय में समाधि में रहता है ।
पूर्वाचार्य रचित सिस्विंदावेज्झय पइण्णयं'