Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
View full book text
________________
हु सक्का पारसा नाणी साथ युक्त श्रुतज्ञाऔर गहन
'ज्ञानगुण' न हु सक्का नाउं नाणं जिन देसियं महाविसयं । ते धन्ना जे पुरिसा नाणी य चरित्तमंता य ॥ ६८ ॥ :
श्री जिन प्ररुपित महान विषय युक्त श्रुतज्ञान को पूर्णरूप से जानना शक्य नहीं है । [श्रुतसागर इतना व्यापक, विशाल, और गहन है कि विद्वान जन भी उसका पार पाने में असमर्थ है] अत: वे पुरुष धन्यवाद के पात्र है जो ज्ञानी और चारित्र संपन्न है । सक्का सुयनाणाओ उड्डं च अहे च तिरियलोयं च । ससुरासुरमणुयं सगरुलभूयगं सगंधव्वं ॥ ६९ ॥ .
सुर, असुर, मनुष्य, गरुडकुमार, नागकुमार और गंधर्व देव सहित उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्खालोक का विशद स्वरुप श्रुतज्ञान से जाना जा सकता है। जाणंति बंधुमुक्खं जीवाजीवे य पुण्णपावं च । आसवसंवरनिज्जर तो किर नाणं चरणहेऊ ॥ ७० ॥ ___ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष इन नौ तत्त्वों को बुद्धिमान पुरुष श्रुत ज्ञान से जान सकता है । जिससे ज्ञान चारित्र का हेतु है। नायाणं दोसाणं विवज्जणा सेवणा गुणाणं च ।। धम्मस्स साहणाई दुन्त्रिवि किर नाणसिद्धाइं ॥ ७१ ॥
ज्ञात दोषों का त्याग और ज्ञातगुणों का सेवन अर्थात् धर्म के साधनभूत दोषत्याग और गुण सेवन ये दोनों ज्ञान द्वारा ही सिद्ध होते है । नाणेण विणा करणं करणेण विणा न तारयं नाणं । भवसंसार समुदं, नाणी करणहिओ तरइ ॥ ७२ ॥
ज्ञान बिना चारित्र (क्रिया) और क्रिया बिना का अकेला ज्ञान भवतारक नहीं होता । परंतु चारित्र क्रिया संपन्न ज्ञानी ही संसार समुद्र से पार होता है। नाणी वि अवट्टतो, गुणेसु दोसे य ते अवज्जिंतो।। दोसाणं च न मुच्चइ तेर्सि नवि ते मुणे लहइ ॥ ७३ ॥
ज्ञानी होने पर भी क्षमादि गुणों में न वर्ते और क्रोधादि दोषों का त्याग पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं