Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
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जो विणओ तं नाणं जं नाणं सो हु वुच्चइ - विणओ । विणएण लहइ नाणं नाणेण विजाणई विणयं ॥ ६२ ॥
जो विनय है वही ज्ञान है, ज्ञान है वही विनय है, क्योंकि विनय से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विनय का स्वरूप ज्ञात होता है । [विनय और ज्ञान परस्पर सहायक है]
सव्वो चरित्तसारो विणयंमि पइट्ठिओ मणुस्साणं ।
न हु विणयविप्पहीणं निग्गंथरिसी पंसंसंति ॥ ६३ ॥
मनुष्यों के संपूर्ण चारित्र का सार विनय में प्रतिष्ठित है । [ चारित्र की प्राप्ति और शुद्धि विनय से होती है ] इस कारण विनय हीन मुनि की प्रशंसा निग्रंथ महर्षि नहीं करते ।
सुबहुस्सुओवि जो खलु अविणीओ मंदसद्धसंवेगो । नाराहेइ चरितं चरित्तभट्ठो भमइ जीवो ॥ ६४ ॥
बहुश्रुत भी अविनीत और अल्प श्रद्धा-संवेगवाला हो तो चारित्र की आराधना नही कर सकता और चारित्र भ्रष्ट जीव संसार में भ्रमण करता है ।
थोवेण वि संतुट्ठो सुएण जो विणय करणसंजुत्तो । पंच महव्वय जुत्तो गुत्तो आराह होइ ॥ ६५ ॥
जो मुनि अल्प भी श्रुतज्ञान से संतुष्ट चित्तवाला होकर विनय करने में तत्पर रहता है और पांचमहाव्रत का निरतिचार पालन करता है और मनवचन काया को गुप्त रखता है । वह अवश्य चारित्र का आराधक होता है ।
बहुयंपि सुयमहीयं किं काही विणयविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पत्ता दीवसयसहस्सकोडी वि ॥ ६६ ॥
अधिक शास्त्रों का अध्ययन भी विनय रहित साधु को क्या लाभ करेगा ? लाखों करोडों दीपक भी अंध मानव को लाभ कर्ता नहीं होते । [विनय रूपी चक्षु के बिना शास्त्रज्ञान निरर्थक है ।]
विणयस्स गुणविसेसा, एव मह वन्निया समासेण । नाणस्स गुणविसेसा, ओहियहियया निसामेह ॥ ६७ ॥
इस प्रकार मैंने विनय के विशिष्ट लाभों का संक्षेप में वर्णन किया | अब विनय पूर्वक प्राप्त श्रुतज्ञान के विशिष्ट गुणोंका वर्णन सावधान चित्त से सुनों । पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'
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