Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 14
________________ फिर भी अविनीत और गर्व सहित हो तो श्रुतधर-गीतार्थ उसकी प्रशंसा नहीं करते । सुबहुस्सुयं पि पुरिसं कुसलाअप्प सुर्यमि ठावंति । गुणहीणं विनयहीणं चरितजोगेहिं पासत्यं ॥ ५७ ॥ बहुश्रुत मुनि भी गुणहीन, विनय हीन. और चारित्र योग में शिथिल हो तो गीतार्थ पुरुष उसे अल्प श्रुत वाला मानते हैं । [श्रुतज्ञान का फल गुण का विकास, विनय पूर्ण सहकार और चारित्र में स्थिरता है, वह न हो तो केवल श्रुतज्ञान का कोई अर्थ नहीं] , तवनियमसीलकलियं उज्जुतं नाणदंसणचरिते । अप्पसुयं पि हु पुरिसं बहुस्सुयपयंमि ठावंति ॥ १८ ॥ जो तप, नियम, और शील युक्त हो, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में तत्पर हो उस अल्पज्ञानी मुनि को भी ज्ञानी बहुश्रुत का स्थान मान देते हैं । [कारण कि (ज्ञानस्य फलं विरतिः) ज्ञान का फल विरति उसके पास है] सम्मत्तंमि य नाणं आयत्तं दंसणं चरित्तंमि ।। खंतिबलाउ य तवो नियमविसेसो य विणयाओ ॥ ५९॥ सम्यक्त्व में ज्ञान, चारित्र में ज्ञान और दर्शन दोनों समाहित है । क्षमा के बल से तप और विनय से विशिष्ट प्रकार के नियम सफल-स्वाधीन बनते , सव्वे य तवविसेसा नियमविसेसा य गुणविसेसा य । नत्थिय विणओ जेसिं मुक्खफलं निरत्ययं तेर्सि ॥ ६०॥ ___ मोक्ष फल प्रदायक विनय जिसमें नहीं है, उसके विशिष्ट प्रकार के तप नियम, गुण निष्फल-निरर्थक बनते हैं [अर्थात् तपादि अनुष्ठान विनय पूर्वक ही सफल होते हैं] पुव्वं परुवियो जिणवरेंहिं विणओ अणंतनाणीहिं । सव्वासु कम्मभूमिसु निच्वं चिय मुक्खमग्गंमि ॥ ६१ ॥ अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर प्रभुने सभी कर्मभूमियों में मोक्ष मार्गकी प्ररूपणा में सर्वप्रथम विनय का ही उपदेश दिया है । पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'

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