Book Title: Siddhachakra Navpad Swarup Darshan
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 17
________________ शिख आचरने वाले प्राचार्य भगवन्त हैं, उसे सूक्ष्म रूप से समझाने वाले उपाध्याय भगवन्त हैं तथा अन्तर तथा बाह्य जीवन में साधने वाले साधु भगवन्त हैं। ___इन पाँचों की सेवा-अर्चना अमैत्रीभाव रूप पाप का नाश करने वाली है और परम स्नेहभाव को विकसित कर सर्व मंगलों को खींच कर लाने वाली है। स्नेह भाव के विकास से धर्म को प्राप्ति और वृद्धि होती है जिससे सर्व सुखों का आगमन तथा लाभ होता है। अमैत्री भाव के नाश से दुःखमूलक हिंसादि पापों से मुक्ति मिलती है। मैत्री भाव से पूर्ण पंच परमेष्ठी की आराधना से सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं तप के प्रति रुचि विकसित होतो है, फलस्वरूप मुक्तिगमन-योग्यता रूप भव्यत्व का विकास होता है और कर्म के सम्बन्ध में आने की योग्यता रूप सहजमल का नाश होता है। विवेक के जागरण और अविवेक के निवारण हेतु श्री सिद्धचक्रनवपदजी की आराधना सर्वोत्तम है। पू. प्राचार्यश्री ने नवपद आराधना को स्वरूपप्राप्ति का अमोघ साधन बताया है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह मोक्षप्रदायिनी है, व्यावहारिक दृष्टि से आरोग्यवधिनी है। 'स्वस्थ तन में स्वस्थ मन' की उक्ति सार्थक करने वाली है। रसना-स्वाद के लिए मनुष्य भक्ष्य-अभक्ष्य का ख्याल नहीं करता, अशुद्ध भोजन से उसका तन-मन 'पाप-गृह' बन जाता है। नवपद-प्रोलीजी में उचित रूक्ष भोजन लिया जाता है, जो शरीर को नीरोग बनाता है। आधुनिक युग में प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान ने 'रूक्ष भोजन'-शुद्ध सात्विक भोजन (घी, गुड़, तेल, दूध, दही आदि से रहित) को लेने का निर्देश दिया है। ( ८ )

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