Book Title: Shwetambar Jain Tirth Darshan Part 01
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 510
________________ राजस्थान विभाग : ७ जोधपुर जिला (४५१ 0 मूलनायक श्री महावीर स्वामी ईस नगरी के प्राचीन नामे उपकेश, पट्टन, उरकेशपुर मेलपुर, पट्टर, नवनेरी आदि है । यह नगरी बहुत बड़ी थी। लोहवाट और तिवारी उसके महोल्ले थे । १४ वीं सदि में रची हुई उपकेशगच्छ पट्टावली अनुसार विक्रम संवत ४०० पूर्व महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद ७० वर्ष में श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के सातवें पट्टधर श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी म. ५०० शिष्यों के साथ यहाँ पधारे थे उस समय यहाँ राजा उपलदेव और मंत्री उहड़ थे। दोनों ने बोध ग्रहण कर जैन धर्म को अंगीकार किया और यह महावीर स्वामी का मंदिर बनवाया था । और श्री रत्नप्रभसूरीजी म. के वरद् हस्तों से इसकी प्रतिष्ठा संपन्न हुई थी । श्री रत्नप्रभसूरीजी म. ने शुरवीर राजपुतों को व्यसन त्याग करवा के जैन धर्मी बनाये थे और ओसवंश की स्थापना की थी । आज भी उन ओशवाल परिवारों में परमार-राठोड-सोलंकी वि. गोत्र है । यह ओसवाल भारत के अलावा परदेश में भी है। यह लोग समृद्धिवान है; और जैन धर्म की प्रभावना, जिवदया और परोपरकार के बहुत से काम करते है। अद्भुत कारीगरी वाले श्री महावीर स्वामी मूलनायक के देरासर में रंगमंडप बाहर आते. दाहिने बाजु में दिवाल में एक प्राचीन शिलालेख है । उसमे सं. १२३४ के मृगशीर्ष वद ७ मंगलवार के दिन जिर्णोद्धार होने का लेख है । दूसरा लेख सं. १८०२ में जिर्णोद्धार हुआ है । यह लेख भी है। . एक नक्कासी वाले दरवाजे पर सं. १०३६ आषाढ़ सुद १० का लेख है । एक सभामंडप में सं. १२३४ में जिर्णोद्धार होने का भी लेख है । श्री महावीर स्वामी मूलनायक की प्रतिमाजी बालु की बनाई गई है; और उसके पर सुवर्ण का लेप किया है । सारे राजस्थान में यह सब से पूराना मंदिर है । करीब २५०० साल पूराना है । इससे पूराना राजस्थान में कोई मंदिर नहीं है । कम्पाउन्ड में श्री जिनदत्तसूरीजी की आरस की १ मूर्ति है । बारिक नक्कासीवाली छोटी देरी में नई मूर्ति बिठाई है । बाजु में पादूकाजी है । एक दूसरी देरी में भी प्राचीन मूर्ति है । एक जगे पर प्राचीन कलाकृति वाला तोरण भी है। यह एक ही पथ्थर में से बनाया है। तीसरी देरीवाली मूर्ति सब से प्राचीन है । जहाँ जिनराजकी नई प्रतिमाजी है । देरासर के बाहर के भाग में सं. १२९१ का लेख है । जीस में २२ देवीओं की मूर्ति ८ जो जमीन में से निकली है और जीस के नीचे सं. १३५१ का लेख है । इसकी साथ में काउस्सग्गिया की मूर्ति भी निकली थी । जीसमें सं. ९३४ का लेख है । जो आज दिल्ही के संग्रहस्थान में है। भमति में चौथी देरी में प्रभुजी जो कपास की पूणी में से बनाये हुए नाग-नागिन का भव्य और चमत्कारिक एक दूसरों से मिला हुआ जोडा है । जो यहाँ के अधिष्ठायक है। जीसकी पर चांदि का लेप किया गया है । भमति में एक देरी है । जहाँ ४ अखंड दीपक ज्योत है । मूलनायक की दाहिनी ओर कम्पाउन्ड में एक देरी में ऋषभदेवजी है। दूसरी में श्री पार्श्वनाथजी है । मूलनायक के सामने कम्पाउन्ड है । सभा मंडप भी है । जीस में १२३१ माघ सुद ८ का लेख है। मूलनायक की बाँये ओर जहाँ कंपाउन्ड है । वहाँ देरी में श्री जिनदत्तसूरीजी की मूर्ति और पादुकाएं है । दूसरी में संभवनाथ, तीसरी में नेमिनाथ, चौथी में ऋषभदेवजी की बड़ी मूर्ति जो ५०० साल पूरानी और परिकरयुक्त है । उसके सामने इसी प्रकार की मूर्ति है । मोहनलालजी महाराज की मूर्ति इस भाग में है । २०० साल पहले उन्हों ने बालु के नीचे ढके हुओ इस देरासरकी खोज की थी । बालु के पार्श्वनाथजी की निकट में दो पार्श्वनाथजी की श्याम रंग की मूर्तियाँ है । मूलनायक श्री महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा युग प्रधान आचार्य देवश्री रत्नप्रभसूरी म. की मूर्ति इस भाग में है । जो रंगमंडप के मूलनायक की बाँये ओर है । इसकी बाजु में परिकर युक्त ऋषभदेवजी की दो बड़ी मूर्तियाँ के पास सं. ११५१ का लेख है औरंगझेब के समय में मूसलमानों ने इस मंदिर और मूर्तियाँ तोड़कर बड़ा भारी नुकशान किया था। मूलनायक श्री महावीर स्वामी के मंदिर पर चढ़ने के लिए १०८ पगथी हैं । जो जमीन में छ फूट के गेब पर है। ओसवालों की कुलदेवी ओसियादेवी (सच्चाई देवी) का ओसवालों को श्राप है । इस वजह से ओसवाल यहाँ घर या दूकान बनाकर स्थिर नहीं रह शकते है । कोरटा के इतिहास में वीर निर्वाण से सं. ७० में श्री रत्नप्रभसूरि म. ने कोरटा और ओसिया के दोनो मंदिरो की प्रतिष्ठा एक साथ एकही मुहूर्त में दो स्प धारण करके की थी भिनमाल के इतिहास में भी राजकुमार उपलदेव और मंत्री उहड़ भिनमाल से यहाँ आकर ओसिया नगरी बसाई - उपकेश नगर भी बसाया था । आचार्य श्री से बोध पाकर जिन धर्म स्विकार किया और भव्य जिन मंदिर बनाकर आचार्यजी के हाथों से प्रतिष्ठा कराई थी । यहाँ संप्रति राजाने मंदिर बनाकर प्रतिमाजी पधराई थी । पूरातत्त्ववेता मानते है कि यह स्थान और शिल्प ८ वीं सदी का है नयप्रमोद द्वारा ओसिया वीर स्तवन में १२ वीं सदी में यह नगरी बसाने का लिखा है। पर यह सत्य नही लगता है। ओसवाल उत्पत्ति में उहड़ी मंत्री द्वारा सं. १०११ में ओसिया बसाया था ऐसा उल्लेख है । सं. १०१७ में मंदिर बनाने का लिखा है । यह विगत भी स्तवन जैसी है जो हम मान नहीं सकते।

Loading...

Page Navigation
1 ... 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548