Book Title: Shrutsagar Ank 040
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर ४० www.kobatirth.org - १३ इस प्रकार के चिह्न कई प्रतों में अलग-अलग स्याहियों द्वारा बने हुए भी मिलते हैं। कई बार इस प्रकार का चिह्न तो बना हुआ नहीं मिलता है, लेकिन प्रत के बीचों-बीच इसी आकार का स्थान खाली छोड दिया जाता था। कागज पर लिखे हुए ग्रन्थों में विविध प्रकार की चित्रित मध्यफुल्लिकाएँ देखने को मिलती हैं। कहीं-कहीं तो लहियाओं ने अक्षरों को लिखते समय इस प्रकार से स्थान छोड़छोड़ कर लिखा है कि रिक्तस्थान में स्वतः ही मध्यफुल्लिका बनी हुई दिखाई देती है। जिसे लहियाओं की लेखनकला का उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छिद्रक : अधिकांशतः ताडपत्रीय प्राचीन प्रतों में छिद्रक मिलता ही है। यह प्रत के मध्य भाग में एक छोटा-सा छिद्र होता है। इस छिद्रक का पाण्डुलिपि संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें एक पतली रस्सी पिरोकर ग्रन्थ के जितने फोलियो होते हैं उन्हें एकत्रित करके ग्रन्थ के उपर-नीचे लकडी के पुट्ठे लगाकर एक साथ कसकर बाँध दिया जाता था। क्योंकि प्रतों में सर्वाधिक नुकसान उनके शिथिल बन्धन' के कारण होता है । अतः इस छिद्रक के माध्यम से पत्रों को कसकर बाँध दिया जाता था, जिससे कोई पत्र खोए नहीं, पूरा ग्रन्थ एक साथ उपलब्ध हो सके या आँधी-तूफान में उसके पत्र उड न जायें। इस छिद्रक के माध्यम से एक प्रकार से कहें तो प्रत बाइण्डिंग का काम होता था । चन्द्रक : चन्द्रक भी प्रत के मध्य भाग में देखने को मिलता है। चाँद के जैसा दिखने के कारण इसे चन्द्रक नाम दिया गया प्रतीत होता है। छिद्रक और चन्द्रक में फर्क सिर्फ इतना है कि छिद्रक ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों में एक छिद्र के रूप में होता है जबकि चन्द्रक कागज की पाण्डुलिपियों में छिद्र करने के वजाय उस स्थान को लाल अथवा काली स्याही से गोल चंद्र जैसा रंग दिया जाता था । संभवतः यह चंद्रक की परंपरा छिद्रक के बाद की है, और प्राचीन ताडपत्रीय परंपरा को जीवित रखने हेतु कागज पर लिखित प्रतों में इस चंद्रक का प्रयोग प्रारंभ हुआ होगा। क्योंकि यदि कागजीय प्रतों में भी ताडपत्र की तरह ही मध्य में छिद्र किया जाता तो वह कागज सबसे पहले वहीं से फट जाता। इसलिए कागज की प्रतों में छिद्रक के स्थान पर चंद्रक की परंपरा का विकास हुआ होगा। वैसे भी जब कागज का निर्माण हुआ तब तक हमारे प्रबुद्ध मनीषी इन कागज की प्रतों को सुरक्षित रखने के लिए अन्य विकसित साधनों का आविष्कार कर चुके थे। जैसे कि लाल कपडे में लपेट कर रखना, दाबडा, संच, कबाट, पेटी-पटारा आदि में १. तैलाद्रक्षेज्जलाद्रक्षेद् रक्षेच्छिथिलबन्धनात् । परहस्तगताद्रक्षेदेवं वदति पुस्तकम् ।। For Private and Personal Use Only

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