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श्रुतसागर - ४०
सद्भाग्ये काव्यप्रकाशनी वृत्तिनी एक अपूर्ण हाथपोथी मळे छे. ए बीजा अने त्रीजा उल्लासने अंगे छे.
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एमां विविध मतो दर्शावी यशोविजयगणिए पोतानो अभिप्राय दर्शाव्यो छे. जिनरत्नकोश (विभाग १, पृ. ९०) मां A Descriptive Catalogue of manuscripts in the Jain Bhandars at Pattan (Vol. I, p. १०७ ) नी नोंध छे अने ए द्वारा पाटणना भंडारमां काव्यप्रकाशनी उपर्युक्त वृत्ति होवानो उल्लेख कर्यो छे, पण आ सूचीपत्रना' आ पाना उपर तो आ वृत्तिनो उल्लेख जणातो नथी तेवं म? जो आ वृत्तिनी ताडपत्रीय प्रत पाटणना भंडारमां होय तो ए छपाववी घटे.
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अलंकारचूडामणि उपर यशोविजयगणिए वृत्ति रची छे ए वात प्रतिभाशतक ( श्लो. ९) नी स्वोपज्ञ वृत्ति (पत्र ३०) मांनी निम्न लिखित पंक्ति उपरथी फलित थाय छे
“प्रपञ्चितं चैतदलङ्कारचूडामणि वृत्तावस्माभिः "
आवृत्ति अत्यार सुधी तो मळी आवी नथी. उपर्युक्त नवमा श्लोकना उत्तरार्धमां कह्युं छे के जे अहीं - जैन शासनमां- जिननी मूर्तिने जिनना समान न जाणे तेवा पुरुषने को पंडित मनुष्य जाणे? तेने तो शींगडां अने पूंछडा वगरनो स्पष्टपणे पशु जाणे. आ संबंधमां स्वोपज्ञ वृत्ति (पत्र ३० ) मां नीचे मुजब कथन छे -
''शृङ्गपुच्छाभावमात्रेण तस्य पशोर्वैधर्म्यम्, नान्यदित्यर्थः । व्यतिरेकालङ्कारगर्भोऽत्राक्षेपः । उपमानाद् यदन्यस्थ व्यतिरेकः स एव स इति काव्यप्रकाशकारः । न च व्यतिरेक उत्कर्ष इत्यत्रानुक्तिसम्भवः ।”
" हनूमदाद्यैर्यशसा मया पुनर्द्विषांऽ हसैर्दुत्यपथः सितीकृत:' इत्यादावपकर्षेऽपि तद्दर्शनात्। प्रपञ्चितं चैतदलङ्कारचूडामणि वृत्तावस्माभिः ।" आनो अर्थ ए छे के ते पुरुषमां अने पशुमां, शींगडां अने पूंछडाना अभाव पूरतुं ज वैधर्म्य छे - तफावत छे. अहीं 'व्यतिरेक' अलंकारथी गर्भित 'आक्षेप' छे. उपमानथी अन्यनो जे व्यतिरेक अर्थात् वैधर्म्य थाय ते ज व्यतिरेक ते 'व्यतिरेक' अलंकार छे एम काव्यप्रकाशना कर्तान
१. मुखपृष्ठ उपर आनुं नाम पत्तनस्थ प्राच्यजैनभाण्डागारीयग्रन्थसूची छे. २. "दूतपथः " ए पाठ मुद्रित पुस्तकमां जोवाय छे अने ए समुचित जणाय छे. ३. आ श्री हर्षकृत नैषधचरित ( सर्ग ९) ना १२२मा पद्यनो उत्तरार्ध छे,
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