Book Title: Shrutsagar Ank 040
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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१७
अभ्याख्यान
पैशुन्य
रति-अरति
श्रुतसागर - ४०
जो पूर्वभवमा एक जूटुं आळ आप्युं श्रमणने सीता समी उत्तम सतीने रखडपट्टी थई वने इर्ष्या तजु, बनुं विश्ववत्सल, एक वांछित मनलj
आ पापमय संसार छोडी श्रमण हुं क्यारे बनें! ||१३ ।।
मारी करे, कोइ चाडीचूगली ए मने न गमे जरी ६ तेथी ज में, आ जीवनमां नथी कोई पण खटपट करी
भवोभव मने नडजो कदी ना पाप आ पैशुन्यनुं आ पापमय संसार छोडी श्रमण हुं क्यारे बचें! ।।१४।। क्षणमां रति क्षणमा अरति आ छे स्वभाव अनादिनो दुःखमां रति सुखमां अरति लावी बनुं समता भीनो संपूर्ण रति बस, मोक्षमा हुं स्थापवाने रणझj आ पापमय संसार छोडी श्रमण हुं क्यारे ब! ||१५||
अत्यंत निन्दापात्र जे आ लोकमां य गणाय छे र ते पाप निन्दा नामर्नु तजनार बहु वखणाय छे
तर्जु काम नक्कामु हवे आ पारकी पंचातनुं आ पापमय संसार छोडी श्रमण हुं क्यारे बनें! ||१६ ।। माया मृषावादे भरेली छे प्रभु! मुज जिंदगी ते छोडवानुं बळ मने दे, हुं करूं तुज बंदगी बनु साच दिल आ एक मारूं स्वप्न छे आ जीवनआ पापमय संसार छोडी श्रमण हुं क्यारे बनें! ।।१७।। सहु पापर्नु, सहु कर्मनु, सहु दुःखनुं जे मूल छे मिथ्यात्व भंडं शूल छे, सम्यक्त्व रुडुं फूल छे
निष्पाप बनवा हे प्रभुजी! शरण चाहुं आपनुं के आ पापमय संसार छोडी श्रमण हुं क्यारे बनें! ।।१८।।
मिथ्यात्वशल्य माया-मृषावाद पर-परिवाद
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