Book Title: Shrutsagar Ank 040
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० मई • २०१४ अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है, विस्तृत विषयानुक्रमणिका, पदार्थों की सूचि आदि भी बहुपयोगी सिद्ध हो रही है. भूमिका (हृदयोर्मि) में विद्वान लेखक ने अन्य कृतियों से संबंधित विषयों के उद्धरण, पूर्व प्रकाशित प्रकाशनों, संबंधित हस्तप्रतों का परिचय आदि प्रस्तुत कर इस प्रकाशन को और अधिक उपयोगी बना दिया है. परिशिष्ट के अन्तर्गत बहुपयोगी विषयों को सम्मिलित किया गया है. सामान्यतः प्रकाशनों में गाथा/श्लोकानुक्रमणिका तो होती ही है, परन्तु प्रस्तुत प्रकाशन के अंतर्गत टबार्थ में प्रयुक्त संदर्भग्रंथों एवं साक्षीपाठों की अनुक्रमणिका भी दी गई है, जो स्वयं में एक उदारहणरूप है. इसके साथ-साथ कुल १७ परिशिष्टों में परामर्शकर्णिका में प्रयुक्त संदर्भग्रंथ, ग्रंथकार, न्याय, विशिष्ट व्यक्तियों के नाम, नगर-तीर्थ के नाम, साक्षीपाठ, विषय, दृष्टांत, कोष्ठक आदि की अति विशिष्ट एवं विस्तृत अनुक्रमणिका दी गई है. परिशिष्ट देखने से यह स्वतः स्पष्ट होता है कि आधुनिक तकनीक (कम्प्युटर) का उपयोग किसी वैसे व्यक्ति के निर्देशन में किया गया है जो कम्प्युटर की सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों का विशिष्ट ज्ञान रखता हो. सभी विषय एवं विषय से संबंधित बातों का संकलन खूब सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है. प्रस्तुत प्रकाशन के संपादन हेतु जिन ३६ हस्तप्रतों का आधार लिया गया है, उनमें से १८ हस्तप्रतें एवं अनेक प्रकाशित पुस्तकें आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा से ही उन्हें मिली है, ज्ञानमंदिर का अहोभाग्य है कि इस प्रकाशन के संपादन हेतु हस्तप्रतें, पुस्तकें एवं कुछ परिशिष्टों के सर्जन में सहयोगी बन सका है. यह किसी भी ज्ञानभंडार के लिए सौभाग्य की बात है. प्रस्तुत प्रकाशन में सहयोग हेतु ज्ञानमंदिर गौरव का अनुभव कर रहा है. मूल व टबार्थ महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी का है तो उसकी विवेचना वर्तमान समाननामधारी पंन्यासप्रवर श्री यशोविजयजी की है. द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका की महान प्रस्तुति के पश्चात् यह एक और सीमाचिह्न रूप में पूज्यश्री की प्रस्तुति है. श्रीसंघ, विद्वद्वर्ग, जिज्ञासु इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं. सर्जनयात्रा जारी रहे ऐसी शुभेच्छा है. अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा. पूज्य पंन्यासश्रीजी को इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन. For Private and Personal Use Only

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