Book Title: Shrutsagar Ank 040
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर ४० - www.kobatirth.org ११ ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती हैं। इन एकाधिक प्रतियों के आधार पर ही इन ग्रन्थों की समीक्षित आवृत्तियाँ तैयार की जा सकी हैं, जो कर्ता अभिप्रेत शुद्ध पाठ का निर्धारण करने में सहायक सिद्ध होती हैं। मार्जिन - हाँसिया ये पाण्डुलिपियाँ एक विशेष पद्धति से लिखी जाती थीं। इनमें शब्दों को मिलाकर लिखा जाता था, अर्थात् दो शब्दों के बीच स्थान नहीं छोड़ा जाता था । मात्राएँ भी विशेष प्रकार से लगाई जाती थीं, जिनमें अग्रमात्रा एवं पृष्ठमात्रा (खडी - पाई, पडी - पाई) का विशेष प्रचलन था । वाक्य समाप्ति या प्रसंग समाप्ति पर कोई पैराग्राफ नहीं बनाया जाता था। कुछ अक्षर विशेष प्रकार से लिखे जाते थे । पत्र के दोनों ओर मार्जिन हाँसिया छोडा जाता था। पत्र के मध्य में विविध प्रकार की मध्यफुल्लिकाएँ बनाई जाती थीं, पत्र के एक ओर पत्रांक लिखा जाता था | चित्रित प्रतों में प्राकृतिक रंगों तथा सोने-चाँदी की स्याही द्वारा प्रसंगानुरूप चित्र भी बनाये जाते थे। उस समय विशेष ध्यान रखा जाता था कि कम से कम साधन-सामग्री में अधिक से अधिक लेखन कार्य हो सके। क्योंकि साधन बहुत सीमित थे | ताडपत्र, भोजपत्र, कागज, स्याही, कलम आदि लेखन-सामग्री आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती थी। यही कारण रहा होगा कि पाण्डुलिपियों में लिखित वर्णों, शब्दों आदि के बीच में स्थान नहीं छोड़ा गया होगा । यहाँ पाण्डुलिपि स्वरूप एवं विविध नामावली का उल्लेख निम्नवत् है - पाण्डुलिपि स्वरूप विवेचन मूल जिह्वा क्षेत्र मध्यफुल्लिका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हंसपाद / काकपाद या मोर -पगलूँ आदि चिह्न छिद्रके / चन्द्रक मूलजिह्वाक्षेत्र : यह स्थान पाण्डुलिपि का मूल भाग होता है, जहाँ अभीष्ट ग्रन्थ लिखा जाता है। इसके ऊपर-नीचे तथा दायें-बायें योग्य रिक्त स्थान छोडा जाता है जिसे मार्जिन हाँसिया क्षेत्र कहते हैं । For Private and Personal Use Only मार्जिन - हाँसिया : हाँसिया का उपयोग प्रमादवश छूटे हुए अक्षर, पतितपाठ एवं उपयोगी टिप्पण लिखने हेतु किया जाता था । पाण्डुलिपि लेखन के

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