Book Title: Shrutsagar 2019 11 Volume 06 Issue 06
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 November-2019 SHRUTSAGAR २४ जिन १३८ पूर्वभववर्णन स्तव पंकजकुमार शर्मा इस संसार में अनादि काल से अनंत-अनंत आत्माएँ एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण कर रही है। उसमें से कई आत्माएँ सामान्य केवलि के रूप में, कई गणधर बनकर, कई साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि के रूप में केवली होकर मोक्ष को प्राप्त होती हैं। उनमें से बहुत ही कम ऐसे प्रकृष्ट पुण्य के धनी होते हैं, जो तीर्थंकर के रूप में जन्म लेकर सिद्धगति को प्राप्त करते हैं। भरतक्षेत्र में १० कोडा-कोडी सागरोपम के एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणीरूप काल में मात्र २४ ही तीर्थंकर होते हैं। उनके द्वारा स्थापित धर्मतीर्थ में असंख्य आत्मा मोक्ष की अधिकारी बनती हैं। तीर्थंकर की आत्मा भी पहले हमारी तरह ही संसार में परिभ्रमणरत होती है। तथाभवितव्यत्व के चलते आराधना करते-करते अंत में समस्त जीवों के कल्याण की प्रबल भावना के परिणाम स्वरूप वह तीर्थंकर के रूप में जन्म प्राप्तकर भव्यजीवों को प्रतिबोधित करके मोक्ष को प्राप्त करती हैं। वैसे हमारी तरह उनका भी अनंत भवों का भ्रमण होता है, लेकिन जब से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब से जीव के भवों की गिनती की जाती है। इस अवसर्पिणी काल में हुए २४ तीर्थंकरों की समकित प्राप्ति से लेकर तीर्थंकर बनने तक के भवों की संख्या का वर्णन त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र, सोमतिलकसूरि रचित सप्ततिशतस्थानक ग्रंथ, जिनेश्वरों के चरित्रात्मक ग्रंथ आदि कई ग्रंथों में पाया जाता है। इसमें वर्तमान चौवीसी के जिनेश्वरों की स्तवनारूप, २४ तीर्थंकरों के कुल १३८ भवों की संक्षिप्त संकलनात्मक तथा जगद्गुरु हीरसूरि महाराजा के शिष्य विजयसेनसूरि और उनके शिष्य संघविजयजी द्वारा रचित प्रायः अप्रगट संस्कृत पद्यबद्ध लघु कृति का यहाँ संपादन किया जा रहा है। हम आशा करते हैं कि इसके माध्यम से वाचकवर्ग लाभान्वित होंगे। परमात्मा की भक्ति का विस्तार हो और हमारे भी भवभ्रमण का अंत हो । कम से कम सम्यक्त्व की प्राप्ति और भव की गिनती का तो प्रारंभ हो ही जाए। कृति में दिये गये २४ तीर्थंकरों के मुख्य नाम या विशेषणात्मक नाम को हमने Bold किया है। जिस भगवान का वर्णन जहाँ से प्रारंभ होता है, उससे पूर्व हमने क्रम के साथ वाचक की सुविधा हेतु भगवान के नाम का शीर्षक दिया है। प्रस्तुत कृति संपादन में प्रस्तावना व शोधपरक कृति परिचय लिखकर देने हेतु पं. श्री गजेन्द्र शाह के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ। For Private and Personal Use Only

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