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ISSN 2454-3705/
श्रुतसागर श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) November-2019, Volume : 06, Issue : 06, Annual Subscription Rs. 150/- Price per copy Rs. 15/
EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
शाजितधर्माता धानधारानी मामादावायग्राम प्रत्यावार्यवाहमा मपदमपरिवल
नानदनावालाया। विमगादहितामा द्वारनिनिश्चरयचा घडविविविविध मिदंविधिशला
सम्राट संप्रति संग्रहालय स्थित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र की प्रायः १२वीं सदी के ताड़पत्र पर अंकित कलिकालसर्वज्ञ
हेमचंद्राचार्यजी का चित्र
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में दीपावलीपर्व .पर आयोजित लक्ष्मीपूजन एवं चोपड़ापूजन की झलकियाँ
उधकामा
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SARICS
SROBARDSRIG
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SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
November-2019 ISSN 2454-3705
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-६, अंक-६, कुल अंक-६६, नवम्बर-२०१९
Year-6, Issue-6, Total Issue-66, November-2019 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ नवम्बर, २०१९, वि. सं. २०७६, कार्तिक कृष्ण पक्ष-३
आराधन
श्रा कन्न.
महावीर
अमृत
पतु विद्या
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९
अनुक्रम १. संपादकीय
रामप्रकाश झा २. गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी ६ ३. Awakening
Acharya Padmasagarsuri ७ ४. श्रीशनुंजय महातीर्थ छ'री पालित संघयात्रा स्तवन
गजेन्द्र शाह ५. २४ जिन १३८ पूर्वभववर्णन स्तव पंकजकुमार शर्मा ६. वासुपूज्यजिन स्तवन
गणि सुयशचंद्रविजयजी ७. गुजराती माटे देवनागरी लिपि के
हिन्दी माटे गुजराती लिपि हिन्दवी ८. प्राचीन पाण्डुलिपियों की संरक्षण विधि
राहुल आर. त्रिवेदी ९. पुस्तक समीक्षा
रामप्रकाश झा १०. समाचार सार
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दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत । कज्जल तजै न श्यामता, मुक्ता तजैन श्वेत ॥
प्रत क्र. २७९२ भावार्थ- जिस प्रकार काजल अपनी कालिमा नहीं छोड़ता है, मोती अपनी उज्वलता नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार दुर्जन पुरुष अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते हैं और सज्जन पुरुष भलाई नहीं छोड़ते हैं।
* प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
November-2019 संपादकीय
रामप्रकाश झा कार्तिक पूर्णिमा की अनन्त शुभकामनाओं के साथ श्रुतसागर का यह नवीनतम अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें असीम प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। इस अंक में आप योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी की अमृतमयी वाणी के अतिरिक्त अप्रकाशित कृतियों अन्य उपयोगी स्तंभो के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे।
प्रस्तुत अंक में सर्वप्रथम “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर की जानेवाली धार्मिक क्रियाओं के विषय में पूज्य आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से संकलित किया गया है, इस अंक में क्रमशः अनेकांतवाद और स्यादवाद पर प्रकाश डाला गया है ।
__ अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम शत्रुजय महातीर्थ यात्रा के उपलक्ष्य में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के पंडित श्री गजेन्द्र शाह के द्वारा सम्पादित “श्रीशनुंजय महातीर्थ छौंरी पालित संघयात्रा स्तवन" प्रकाशित किया जा रहा है। इस कृति के कर्ता मुनि श्री ऋद्धिविमलजी ने शढुंजय महातीर्थ संघयात्रा की विधि का वर्णन किया है। द्वितीय कृति के रूप में ज्ञानमंदिर के पंडित श्री पंकजकुमार शर्मा के द्वारा सम्पादित कृति “२४ जिन १३८ पूर्वभववर्णन स्तव” में मुनि संघविजयजी ने २४ तीर्थंकरों के पूर्वभव का वर्णन प्रस्तुत किया है। तृतीय लेख पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “वासुपूज्यजिन स्तवन” प्रकाशित किया गया है। इस कृति में श्री हर्षमुनि ने श्री वासुपूज्य भगवान की गुणस्तवना की है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८२, अंक-२ में प्रकाशित “गुजराती माटे देवनागरी लिपि के हिंदी माटे गुजराती लिपि” नामक लेख में गुजराती भाषा को देवनागरी लिपि में अथवा हिन्दी भाषा को गुजराती लिपि में लिखे जाने की उपयोगिता और औचित्य पर प्रकाश डाला गया है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत मुनि श्री पद्मकीर्त्तिविजयजी म. सा. के विवरण से यक्त न्यायग्रन्थ “व्यधिकरण” की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है। इस कृति में विद्वान मुनिश्री ने नव्यन्याय के ग्रन्थ व्यधिकरण के दो लक्षणों का गुजराती भाषा में सुगम्य विवरण किया है।
गतांक से जारी “पाण्डुलिपि संरक्षण विधि” शीर्षक के अन्तर्गत ज्ञानमंदिर के पं. श्री राहुलभाई त्रिवेदी द्वारा पाण्डुलिपि का महत्त्व व संरक्षण के उद्देश्य के विषय में संक्षिप्त परिचय दिया गया है, जो प्रत्येक ज्ञानभंडार के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे।
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९
गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी आत्मसाधनामां प्रबळ सहायक दिवस
__ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा कार्तिक शुक्ल पूर्णिमाना दिवसे धर्म विचारोने सहाय मळे, एवं शुभ मानसिक पुद्गलो- तीर्थादि भूमिओमां प्रगटन, समुद्रमां भरतीनी पेठे धर्मना प्रभावे थाय छे, तेथी ते दिवसे आर्य जैनोए धर्मना विचारो अने धर्मनी क्रियाओमां विशेषतः जीवन निर्गमन करवू । पर्वतादिनी गुफाओमां शिलाओ ऊपर पद्मासन वाळीने ध्यान धरतुं । प्रभुनी भक्तिमां तन्मय बनी जq । परभवना आयुष्यनो बंध पण तीर्थना(पर्वतिथिना) दिवसे प्रायः थाय छ। मन्दिरोमां, उपाश्रयोमां, नदीनां कांठे, जंगलना पवित्र प्रदेशमां साधुओए ध्यानारूढ थई जवू । मननी चंचळताने वारीने ध्येय एवा आत्माना स्वरूपमां ऊंडा उतरी जq। जे पवित्र स्थळमां घणा महात्माओए ध्यान धर्यु होय, तेवा स्थानोमां जq अने शांत चित्तथी परमात्मानुं ध्यान धरवु। कोईने ध्यानमां विघ्न करवं नहि। भक्तिना अधिकारीओए पोतानी शुद्धि करवा चित्तनी प्रसन्नता वधती जाय, तेवी रीते देव, गुरु, संघ वगेरेनी भक्तिमां मन, वचन अने कायाथी परिणमएं। पवित्र तीर्थप्रदेशोमां ध्यानीओए ममत्वभावनो त्याग करवा संबंधी संकल्प करवो, पश्चात् अत्रस्थानमा वा अन्य कोई स्थानमा उत्तम ध्यान करवा योग्य कोई शुभ मननी वर्गणाओ होय ते मने सहायकारी थाओ एवो संकल्प करवो।
आत्माने आत्मभावे अनुभवू ऐवी उच्च मारी ध्यानदशा प्रगट थाओ एवो दृढसंकल्प करीने आत्मध्यानमां निमग्न थइ जq । सेवाभक्तिना अधिकारी रुचिवंत जीवोए देव गुरु अने धर्मनी विशेषतः आराधना करवी। उपवास, जप, ध्यान, पूजा, भक्ति, भजन, गुरुसेवा, शीयलभाव आदि वडे पोताना आत्माना गुणो उपासवा हर्षोल्लासथी तत्पर थइ जवू ।
सं. १९६९ ना कार्तिक शुक्ल १५ धार्मिक गद्य संग्रह भाग.१ पृष्ठ क्र.४७९-४८०
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November-2019
Awakening
Acharya Padmasagarsuri (from past issue...)
Between the words Jan (people) Jain (the followers of Jain Dharma) the difference lies only in the prolongation of the sound or syllable.
The first one is of general reference and significance; and the second word signifies right conduct and living. The man who practices the principle of Anekanta at the level of thinking and ahimsa or non-violence at the level of action or conduct is a Jain. Anyone can become a Jain by means of pure thinking and pure conduct. There are no differences among birds that fly on two wings. In the same manner, by using the wings of right thinking and right conduct any person can surely become a true Jain and can fly easily over the wilderness of worldly life. An elephant sinks into a place where there is more of slime and less of water, but, it can cross a place where there is more of water and less of slime. In the same manner, the beings that wander about in the world, sink into it, if in their lives, there is more of sin and less of merit. On the contrary, the beings in whose life there is more of merit and less of sin gradually cross the ocean of life. The Jain Dharma preaches this lofty sense of merit and sin.
Pride increases sins hence, the Jain Dharma has given the great principle of humility as a cardinal virtue. Humility is the enemy of pride. Humility results from proper education. The branches of a mango tree bend down when there are fruits on them but the branches of a palm tree shoot up when fruits appear on these trees. The mango is sweet but the palm is intoxicating. Humility is sweet but pride is intoxicating. The fruit emerges from the seed and the seed emerges from the fruit. In the same manner, politeness emerges from education and education results from humility.
(continue...)
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ श्री ऋद्धिविमल कृत श्रीशजूंजय महातीर्थ छरी पालित संघयात्रा स्तवन
गजेन्द्र शाह एकाहारी भूमिसंस्तारकारी, पद्भ्यां चारी शुद्ध सम्यक्त्वधारी। यात्राकाले सर्व सचित्तहारी, पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥१॥
विद्वानोए भक्तिने मुक्तिनी दूती कही छे। भक्तिनो मार्ग सरळताथी सर्व जीवोने मुक्तिना पंथे चढावी दे छे। तेमां पण तीर्थभक्ति विशेष भावाभिवृद्धिन कारण छे। दूर रहेला तीर्थे चालीने जवा माटेनी तत्परता त्यारे ज प्रगटे, ज्यारे प्रभु प्रत्ये, तीर्थ प्रत्ये अखूट श्रद्धा अने भावना होय । चतुर्विध संघना सान्निध्ये कराती तीर्थयात्रानी तो वात ज निराळी छे।
छ’री पाळवा साथे कराती यात्रा शुद्ध यात्रा गणाय छे। जेना शब्दोना अंते 'री' आवे तेवा ६ शब्दो के जे शुद्ध यात्राना नियमरूप छ। यथा- १) सम्यक्त्वधारी, २) पादचारी, ३) भूमिशयनकारी, ४) सचित्त परिहारी, ५) एकाहारी, ६) ब्रह्मचारी. आ साथे प्रतिक्रमणादि वगेरे पण होय छे, जेना द्वारा साची यात्रानो पुरे-पुरो लाभ उठावी शकाय छे । वर्तमानमां चातुर्मास पूर्ण थतां कार्तिक शुक्ल पूर्णिमाथी शखंजय महातीर्थनी यात्रा प्रारंभ थती होवाथी अनेक स्थळोएथी संघयात्राओनुं प्रस्थान थशे। आ अवसरे अहीं संपादन करेल प्रायः अप्रगट कृति वाचकोने यात्रानी प्रेरणा अने पद्धति समझवामां उपयोगी बनशे। कृति परिचय
कृतिना प्रारंभे कविए संवेगी(मुक्तिना रागी, वैरागी) आत्माने निर्मळ थवा माटे विमलगिरिनी यात्राए जवान आह्वान कर्यु छ। कृतिमां प्रत्येक गाथाना प्रत्येक पदना अंते सूधा संवेगी'नुं संबोधन छंदना अभिन्न अंगरूपे जोडायेलं जोवा मळे छे । आगळ भवना फंद तोडनारा तीर्थाधिपति भगवान आदिनाथ- स्मरण करीने केवी विधि वडे यात्रा करीए तो भवनो लाहो लई शकाय तेनी वात करी छे। तीर्थयात्रामा पळाती छ'रीनुं कविए उदाहरण पूर्वक सुंदर वर्णन कर्यु छे।
प्रथम 'री' संदर्भ कविए तमाम प्रकारना मिथ्यात्वना त्यागनी वात करी छ । जिनेश्वर भगवाननी सेवा, नित्य सद्गुरुने वंदन, जिनवाणी श्रवण, राग-द्वेषी कुदेवनो त्याग, आरंभ-परिग्रहधारी कुगुरुनो त्याग, समकितना आठ आचार निरतिचार पालन करवानी वात करी छ। कविए आ साथे दर्शनाचारना शंका, कांक्षादि ८
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November-2019 अतिचारोनी पण कंइक विस्तार साथे वात जणावी छ । साकर पामीने राखनी इच्छा कोण राखे जेवी उपमाओ द्वारा कांक्षादि अतिचारोनो त्याग अने ग्राह्य तत्त्वने ग्रहण करवा माटे सुंदर समझ आपी छे । यात्राए जतां मार्गमां पूजा महोत्सव अने वाजिंत्रना नादादि द्वारा जिनगुणनो अनुभव करवा अने विषयरूपी विषना वमननी अद्भत वात जणावी छ । कविना शब्दो, अने भावाभिव्यक्ति भव्यात्माओने भावविभोर करी दे तेवा छे । सरळ शब्दोमां कवि शर्तुजयनो महिमा दर्शावतां जणावे छे के
गीरराजनी यात्रा यातां जी सू०, सवि पातक भूको थाता जी। प्रभावना तिहां बह करवी जी सू०, जेणें केवल कमला वरवी जी॥ कविनी एक-एक वात स्पष्ट समझाय तेवी छ।
बीजी री'मां वाहनादिना पापोनो त्याग करी शुद्ध आचारवान् बनी पदचारी यात्रानो निर्देश को छे।
त्रीजीमां भूमि संथारानी वातमां कविए धन्ना-शालिभद्रनु स्मरण करवा जणाव्यु छ।
चोथीमां सचित्तनो त्याग तो कह्यो ज साथे-साथे ए पण जणाव्यु के यात्रार्थ जतां भक्ष्याभक्ष्यनो विवेक राखवो अने भांग, तमाकु वगेरेनो त्याग करवो। पांचमीमां रसासक्तिनो त्याग करी एकासणु करी यात्रा करवानुं कह्यु छ ।
छट्ठी री'मां बह्मचर्यनी वात करतां सुदर्शन जेवा शीलवान् महापुरुषोनुं स्मरण करवा जणाव्यु छे।
छ'री साथे बे टंक प्रतिक्रमण, दान-शील-तप-भाव आम चारेय प्रकारना धर्मनी आराधना साथे यात्रा करवानी कही छे। ___ कविए कृतिमां राजप्रश्नीय जेवा आगमनो संदर्भ टांकवा पूर्वक प्रतिमा पूजानी पुष्टि पण करी छ।
भरत चक्रवर्तीथी लई आज लगी नानी-मोटी अनेक संघयात्राओ नीकळी छे, जे प्रसिद्ध छे अने अन्य ग्रंथोथी जाणी शकाय तेम छ। प्रस्तुत कृतिमां कविए कुमारपाळना संघनी नोंध लीधी छे। ___ अंते सिद्धाचलमंडण आदिनाथ प्रभु पासे ऋद्धिविमलजी अन्य सर्व कामना छोडीने अविचल ऋद्धिनी मांगणी करी कृतिनुं समापन करे छ।
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नवम्बर-२०१९ कर्ता परिचय
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरमा ऋद्धिविमलना नामथी ८ विद्वानोनी सूचनाओ प्राप्त थाय छे । तेमां तेमना गुरुओना नामोमां सिंघविमल, आनंदविमलसूरि तथा सुमतिसागरसूरि वगेरे छ । तेमां प्रस्तुत कृतिना कर्ता कोना शिष्य छे तथा तेमनी अन्य रचनाओ वगेरे माहिती प्राप्त थई शकी नथी। रचना शैलीना आधारे कर्तानो समय अनुमाने १८मी सदी कही शकाय। प्रत परिचय
कृतिनुं संपादन आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर स्थित १८मी सदीनी प्रत क्रमांक ३०७३४ना आधारे करायु छ । बे पानानी प्रतमां १४ जेटली पंक्ति अने प्रतिपंक्ति लगभग ३३ अक्षरो छ। लेखन पद्धतिमां अंक अने दंड लाल स्याहीथी अंकित छे। अंक स्थानमा सामान्य रेखा चित्र जोवा मळे छे। प्रतना मध्यभागे अक्षरमय वापिका छ। प्रतनी स्थिति एकंदरे सारी छ। प्रस्तुत कृतिनी बीजी पण एक प्रत क्र.११३१०३ ज्ञानमंदिर खाते विद्यमान छे पण ते पाछळथी लखायेली अने थोडीक अशुद्ध छे, छतां तेमांथी पाँच-छ शुद्धपाठो ग्रहण कर्या छे अने ते अहीं दर्शावीए छीये- आधार प्रतमां प्रतिलेखक द्वारा गाथांक ३ लखवो रही गयेल छे तथा गाथा १५मां १६मी- प्रथम एक चरण आवी गयेलुं जणाय छे, आ बन्ने क्षतिओने अमे सुधारी छे । गाथा ५मां रहेल एक पद- ते देव न नमीइं सदोषी जी' आमां देव पछीनो 'न' रही जतां बीजी प्रतना आधारे पाठ मूकी शुद्ध कर्यो छे । गाथा १४मां भोमसंथारो' नी जग्याए ‘भोमसंथारी' क£ छ । गाथा १६मां चोथु चरण प्रस्तुत प्रतमां 'जे आपद मद मनवा वारी जी' छे बीजी प्रतमां जे आपद में मन वारी जी' छे, (अमे आदर्शनो पाठ राखेल छे) । गाथा २१मां ‘सानारुपा' ना बदले सोनारुपा' कर्यु छे । गाथा २४, २५मां 'जूयो' नी जग्याए ‘जूओ' कर्यु छ ।
श्रीशगुंजय महातीर्थ छरी पालित संघयात्रा स्तवन ॥:॥ ॥श्रीपर्म(परम) निरंजनाय नमः॥ आवो जी आवो जी सूधा संवेगी, तुम्हे थाओ मगतिना संगी जी सूधा संवेगी। आवो आवो विमलगिर जइये जी सू०, आवो आवो सेजगिर जइये जी सू०।
जिम आपण निर्मल थइये जी सू० ॥१॥ तिहां सोहइ आदिजिणंदा जी सू०, जे तोडे भवना फंदा जी सू०। तस यात्रा विधसूं कीजइ जी सू०, भवोभवनो लाहो लिजे जी सू०
॥२॥
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॥४॥
॥५॥
॥६॥
॥८॥
SHRUTSAGAR हवे छह रनो विध भणीइंजी सू०, ते सदगुरमुखथी सूणीइं जी सू०।। पहिली री समकितधारी जी सू०, तिहां मिथात्व सकल नीवारी जी सू० ॥३॥ जिनराजनी सेवा करवी जी सू०, तस पदवी जो तुम वरवी जी सू०। वली सदगुर नित्य नमिजें जी सू०, जिम जिनवचनामृत पीजे जी सू० रागादिक जेह त्रिदोषी जी सू०, ते देव न नमीइं सदोषी जी सू०।। वली आरंभ परीग्रहवंत जी सू०, एहवा कुगुरु तजो तुमे संत जी सू० समकितना आठ आचार जी सू०, तिहां पालो नीरतीचार जी सू०। तस वीवरो कहुं लवलेश जी सू०, जिम छुटे सकल कलेश जी सू० जिनवाणी साची जाणो जी सू०, तिमा संका दोष न आणो जी सू०। कंखा ते कुमति अभीलाषजी सू०, साकर पांमी कुण खाइ राख जी सू० ॥७॥ जे धर्मनी करणी करीइंजी सू०, तेमां फल संदेह न धरीइंजी सू०। अन्य दर्शन महिमा देखो जी सू०, ते अमुढपणे उवेखो जी सू० गुथे गुणवंताना गुण हीइंजी सू०, सवि विकथा नवि संगुहीइंजी सू०। वाटें पूजा महोछव सार जी सू०, तिहां वाजिवना धोंकार जी सू० जीनगुणनो अनूभव कीजें जी सू०, तो विषय विष वमीजइं जी सू०। जे अनूभवना छे रसीया जी सू०, तस पापबंध खसीया जी सू० भवीजननी धर्मे थीरता जी सू०, करता तई नवि भव फीरता जी सू०। सांमीना वछल भगति जी सू०, ते करवा नवि नवि युगते जी सू० ॥११॥ गीरराजनी यात्रा यातां जी सू०, सवि पातक भूको थाता जी सू०। प्रभावना तिहां बहु करवी जी सू०, जेणें केवल कमला वरवी जी सू० ॥१२॥ बीजी रीइं पदचारी जी सू०, भवइ(भवि) थाओ सूधाचारी जी सू०। तुमे पाय अणुआणे चालो जी सू०, जयणा करी जंतु नीहालो जी ॥१३॥ त्रीजी री भोमसंथारी जी सू०, सवि पल्यंकादीक वारी जी सू०। तिह्यां ध्यावा जग उपगारी जी सू०, धनासालभद्र हितकारी जी सू० ॥१४॥ चोथी री अचीतआहारी जी सू०, सवि सचित तणा परीहारी जी सू०। वली भखाभख वीचारी जी सू०, जेणें भांग तमाकु निवारी जी सू०
॥९॥
॥१०॥
॥१४॥
॥१५॥
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॥२१॥
श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ तेणें नरग निगोद निवारी जी सू०, पंचम री एकाहारी जी सू०।। एकासणु करो मन धारो जी सू०, जे आपद मद मन वावारी जी सू० च्छवी री ब्रह्मचर्यधारी जी सू०, जिणे मूकी मनथी नारी जी सू०। सूदर्शन शील संभारी जी सू०, इम लीजे आतम तारी जी सू० । जव तीरथ पथि जइये जी सू०, जिनपुजी निर्मल थइये जी सू०। वली पडिकमणु बे वार जी सू०, जेणें पामीजइं भवपार जी सू० साथे सांमीनी ल्यो टोली जी सू०, जिम नाखो कर्मनें चोली जी सू०। वली श्रावि जिनगुण गाती जी सू०, जे भगति तणे रस माती जी सू० ॥१९॥ वाटे चोवीह कीजे धर्म जी सू०, तो बेटे सघला कर्म जी सू०। पु(पुं)डरगिर महात्म सूणीइं जी सू०, तो अंतरंगे रीपु हणीये जी सू० इणी रीते वीमलगिर आवे जी सू०, ते लाभ अनंता पावे जी सू०। सोनारुपाना फूलडा जी सू०, मुगताफल लीजे अमूल जी सू० वधावो तिरथराजजी सू०, मन भावो सरीया काज जी सू०। उपर चढी प्रभू जब भेट्या जी सू०, तव भवभय फेरा मेटा जी सू०
करा मटा जा सू० ॥२२॥ तिहां पूजा विविध प्रकारे जी सू०, जिन आगमने अनूसारे जी सू०। इंद्रादिक देवे कीधी जी सू०, तेहने आपणी पदवी दीधी जी सू० जिन परतमा जिनवर सरखी जी सू०,जूओ रायप्रसेणी निरखी जी सू०। जूओ कुमति ए नवि माने जी सू०, तेहनूं मत मुके कांनइं जी सू० इहां नाटिक भवना भावे जी सू०, ते ऋद्धि अनंती पावे जी सू०। जूओ देश अढारनो राजा जी सू०, जस जग में बहुत्त दवाजा जी सू० ॥२५॥ तेणें सेज यत्रा कीधी जी सू०, छह रना विध सूप्रसिध जी सू०। तो गणधर पदवी लहसे जी सू०, कुमारपाल अचल पद वरसे जी सू० ॥२६॥ सिधाचलमंडण सांमी जी सू०, हुं विनती करु सिरनांमी जी सू०। ऋद्धिविमल अविचल ऋद्धि पांमे जी सू०, तो बीजू कांइ न कांम जी सू० ॥२७॥
॥ इति श्री : : स्तवन : संपूर्ण श्री छ ।
॥२३॥
॥२४॥
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November-2019
SHRUTSAGAR २४ जिन १३८ पूर्वभववर्णन स्तव
पंकजकुमार शर्मा इस संसार में अनादि काल से अनंत-अनंत आत्माएँ एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण कर रही है। उसमें से कई आत्माएँ सामान्य केवलि के रूप में, कई गणधर बनकर, कई साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि के रूप में केवली होकर मोक्ष को प्राप्त होती हैं। उनमें से बहुत ही कम ऐसे प्रकृष्ट पुण्य के धनी होते हैं, जो तीर्थंकर के रूप में जन्म लेकर सिद्धगति को प्राप्त करते हैं। भरतक्षेत्र में १० कोडा-कोडी सागरोपम के एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणीरूप काल में मात्र २४ ही तीर्थंकर होते हैं। उनके द्वारा स्थापित धर्मतीर्थ में असंख्य आत्मा मोक्ष की अधिकारी बनती हैं। तीर्थंकर की आत्मा भी पहले हमारी तरह ही संसार में परिभ्रमणरत होती है। तथाभवितव्यत्व के चलते आराधना करते-करते अंत में समस्त जीवों के कल्याण की प्रबल भावना के परिणाम स्वरूप वह तीर्थंकर के रूप में जन्म प्राप्तकर भव्यजीवों को प्रतिबोधित करके मोक्ष को प्राप्त करती हैं।
वैसे हमारी तरह उनका भी अनंत भवों का भ्रमण होता है, लेकिन जब से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब से जीव के भवों की गिनती की जाती है। इस अवसर्पिणी काल में हुए २४ तीर्थंकरों की समकित प्राप्ति से लेकर तीर्थंकर बनने तक के भवों की संख्या का वर्णन त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र, सोमतिलकसूरि रचित सप्ततिशतस्थानक ग्रंथ, जिनेश्वरों के चरित्रात्मक ग्रंथ आदि कई ग्रंथों में पाया जाता है। इसमें वर्तमान चौवीसी के जिनेश्वरों की स्तवनारूप, २४ तीर्थंकरों के कुल १३८ भवों की संक्षिप्त संकलनात्मक तथा जगद्गुरु हीरसूरि महाराजा के शिष्य विजयसेनसूरि और उनके शिष्य संघविजयजी द्वारा रचित प्रायः अप्रगट संस्कृत पद्यबद्ध लघु कृति का यहाँ संपादन किया जा रहा है। हम आशा करते हैं कि इसके माध्यम से वाचकवर्ग लाभान्वित होंगे। परमात्मा की भक्ति का विस्तार हो और हमारे भी भवभ्रमण का अंत हो । कम से कम सम्यक्त्व की प्राप्ति और भव की गिनती का तो प्रारंभ हो ही जाए।
कृति में दिये गये २४ तीर्थंकरों के मुख्य नाम या विशेषणात्मक नाम को हमने Bold किया है। जिस भगवान का वर्णन जहाँ से प्रारंभ होता है, उससे पूर्व हमने क्रम के साथ वाचक की सुविधा हेतु भगवान के नाम का शीर्षक दिया है।
प्रस्तुत कृति संपादन में प्रस्तावना व शोधपरक कृति परिचय लिखकर देने हेतु पं. श्री गजेन्द्र शाह के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ कृति परिचय
कर्ता ने प्रारंभ में मंगलाचरण करते हुए कहा कि पापरहित जगत के स्वामी ऐसे श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ को नमस्कार, मनोवांछितपूर्ति हेतु अपने गुरु का स्मरण एवं मन की जड़ता को नष्ट करने वाली माता सरस्वती के चरणरूपी कमलयुगल का ध्यान करके वर्तमान जिनेश्वरों की भव-परंपरा का वर्णन करता हूँ। इस प्रकार देव-गुरु एवं मा सरस्वती का मंगल स्मरण करके विषय प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत कृति में २४ तीर्थंकरों के १३८ पूर्वभवों का वर्णन है। इसी क्रम में आदिजिन के १३ भव, चंद्रप्रभस्वामी के ७ भव, शांतिजिन के १२ भव, मुनिसुव्रतस्वामी के ९ भव, नेमिजिन के ९ भव, पार्श्वजिन के १० भव, महावीरस्वामी भगवान के २७ भव व अन्य तीर्थंकरों के ३-३ भवों का उल्लेख किया गया है । आवश्यकतानुसार कर्ता ने कृति में तीर्थंकरों के पूर्वभव का नाम, राजा आदि पदवी, क्षेत्र, नगरी, माता-पिता व गुरु का उल्लेख किया है। कहीं-कहीं स्पष्ट नाम न देकर मात्र विशेषणात्मक नाम का ही प्रयोग किया है। जैसे कि ऋषभदेव के नाम में (मरुदेवी के पुत्र ऐसे) मारुदेव, अजितनाथ की जगह (जितशत्रु राजा के पुत्र ऐसे) जितशत्रुभूपतनय' आदि प्रयुक्त है। आदिजिन के प्रथम भव के नाम धन सार्थवाह की जगह मात्र सार्थेश ही लिखा है। वैसे ही कहीं सुधर्मादि देवलोक का नाम दिया है और कहीं मात्र ‘सुरो' लिखकर आगे बढ़ गये हैं।
जिन-जिन भगवान के पूर्वभव के गुरुओं के नाम कृति में उपलब्ध हैं, वह भगवान के नाम के साथ यहाँ दर्शाया जा रहा है
अजितनाथ-अरिदमनाचार्य अभिनंदन- विमलसूरि सुमतिनाथ-सीमन्धरसूरि सुपार्श्व-अरिदमनाचार्य चंद्रप्रभ-युगन्धर
सुविधि-जगदानन्द श्रेयांस-वज्रदन्त
वासुपूज्य-वज्रनाभ विमल-सर्वगुप्त
अनंतनाथ-चित्ररथसूरि धर्मनाथ-विमलवाहन १७-संवर अरनाथ- संवर
नमिनाथ- नन्द श्लोक २६ में सभी तीर्थंकरों के भवों की संक्षिप्त गिनती बताई गई है, यथाआदिजिन के १३, चंद्रप्रभ भगवान के ७ आदि। श्लोक २७ में कर्ता ने अपने गुरु तथा स्वयं का नामोल्लेख किया है।
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SHRUTSAGAR
November-2019 २४ जिनेश्वरों के भवों के बारे में स्तुति, स्तोत्र, स्तवन, चैत्यवंदनादि प्राचीन-अर्वाचीन कई कृतियाँ हैं। हमने यहाँ प्रस्तुत कृति में दर्शित भवों का कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि रचित त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र व चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन (कर्ता- सोमसुंदर गणि शिष्य) के साथ मिलान किया है, (कुत्रचित् सोमतिलकसरि रचित सप्ततिशतस्थानक ग्रंथ को भी ध्यान में लिया है) उनमें जो अंतर नजर आया है वह इस प्रकार है१. संभवनाथ भगवान का दूसरा भव त्रिषष्टि में आनत नामके नौवें देवलोक का है। प्रस्तुत
कृति तथा चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में सातवें ग्रैवेयक का दर्शाया गया है। २. त्रिषष्टि तथा चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में चंद्रप्रभस्वामी भगवान के
अंतिम तीन भवों का ही उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत कृति में तथा सोमतिलकसूरि रचित सप्ततिशतस्थानक ग्रंथ में ७ भवों का उल्लेख है। उसमें भी पहले भव का नाम प्रस्तुत कृति में 'ब्रह्म राजा' और सप्ततिशत में वर्म राजा' मिलता है। ३. सुविधिनाथ भगवान का दूसरा भव त्रिषष्टि में वैजयंत विमान का है, चतुर्विंशतिजिन___ भवोत्कीर्तनस्तवन तथा प्रस्तुत कृति में आनत देवलोक दर्शाया गया है। ४. शीतलनाथजी के दूसरे भव के बारे में त्रिषष्टि व प्रस्तुत कृति में प्राणत देवलोक का
उल्लेख है, जबकि चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में अच्युत देवलोक दर्शाया
गया है। ५. श्रेयांसनाथजी के दूसरे भव के बारे में त्रिषष्टि में सातवाँ महाशुक्र देवलोकदर्शाया गया
है। प्रस्तुत कृति में बारहवें देवलोक की बात है। चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन
में श्रीपुष्पोत्तरसद्विमानकवरे' पाठ है। ६. वासुपूज्यस्वामी के दूसरे भव हेतु त्रिषष्टि व प्रस्तुत कृति में प्राणत देवलोक दर्शाया
है और चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में सप्तम कल्प की बात है। ७. विमलनाथजी के दूसरे भव का नाम त्रिषष्टि व प्रस्तुत कृति में पद्मसेन राजा है। ___ चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में प्रजासेन राजा है। ८. अरनाथ का दूसरा भव त्रिषष्टि में नौंवाँ ग्रैवेयक है और प्रस्तुत कृति में सर्वार्थसिद्ध
विमान दिया गया है। चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में जयन्तविमान है। ९. मल्लिनाथ का दूसरा भव त्रिषष्टि में वैजयन्त विमान है और प्रस्तुत कृति व
चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में जयन्त विमान दर्शाया है।
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ १०. मुनिसुव्रतस्वामी के प्रस्तुत कृति में तथा सप्ततिशत स्थानक ग्रंथ में ९ भव
प्राप्त होते हैं। त्रिषष्टि में अंतिम तीन भव ही दर्शाये गये हैं और उन तीन भवों में पहले भव का नाम सुरश्रेष्ठ राजा है। प्रस्तुत कृति में श्रीवर्मा नाम है। त्रिषष्टि में अंतिम तीन भवों में से दूसरा भव प्राणत देव का है, प्रस्तुत कृति व
चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में अपराजित अनुत्तर का दिया है। ११. इकवीसवें नमिनाथ भगवान का दूसरा भव त्रिषष्टि व चतुर्विंशति
जिनभवोत्कीर्तनस्तवन में अपराजित अनुत्तर का है। प्रस्तुत कृति में प्राणत
देवलोक का दिया है। १२. पार्श्वनाथ के पहले भव का नाम त्रिषष्टि व चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में
मरुभूति है। प्रस्तुत कृति में अमरभूति है। १३. भगवान महावीर के भवों में मरीचि के बाद देवलोक व उसके बाद त्रिदंडी का
भव बताकर स्त्रिदण्डी तथा षट्वारं१० तथैव दानवरिपु१६ प१७' इस प्रकार उल्लेख किया गया है।
प्रत में दिये गये अंकों के आधार पर १७वाँ भव राजा (विश्वभूति) का आ रहा है। श्रीकल्पसूत्र व त्रिषष्टि अनुसार यह भव १६वे क्रम पर आना चाहिए। प्रस्तुत कृति में २२वाँ भव मनुष्य का न दर्शाते हुए उसी क्रम पर चक्रवर्ती वाला भव दर्शा दिया गया है और २७ भव पुरे कर दिये गये हैं। ६-६ वाली गिनती के विषय में मतान्तर है। कुछ विद्वान ब्राह्मण और देव के ६-६ भव मानते हैं तथा कुछ विद्वान ब्राह्मण के ६ और देव के ५ मानते हैं। इस प्रकार १ भव का अंतर पडने पर विश्वभूति का भव १६ व १७ क्रमांक पर आ जाता है। सिंह के बाद वाले नारकी के भव के बाद मनुष्य का भव कम-ज्यादा होने पर अंतमें भवसंख्या २७ हो जाती है। चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में भी ऐसी ही गिनती है। ६-६ भव ब्राह्मण व देव के दर्शा दिये और एक मनुष्य वाला कम कर दिया, ऐसे करके २७ की गिनती पूर्ण की गई है। (१नयसार, २सौधर्म देवलोक, ३मरीचि, ४पंचम कल्पे देव, इसके बाद ६ ब्राह्मण व ६ देव की बात आती है। कौशिक, पुष्पमित्र, अग्निद्योत, अग्निभूति, भारद्वाज और स्थावर । यह ६ भव ब्राह्मण के हुए उनमें से पहले वाले दो ब्राह्मण प्रथम स्वर्ग में गए और उसके बाद वाले क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे व पाँचवे स्वर्ग में गए। तत्पश्चात् क्षुल्लक भवभ्रमण की बात है, फिर अन्य भव है।)
प्रसंगोचित २४ जिनेश्वरों के भवों का कोष्ठक यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। इस
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November-2019 कोष्ठक में प्रस्तुत कृति के अनुसार भव दर्शाये गये हैं। कृति में जहाँ मात्र देव लिखा हो उस हेतु हमने मात्र 'देव' न देकर त्रिषष्टि के अनुसार देवलोक का नाम भी दिया है।
२४ जिन १३८ भव कोष्ठक
क्रम
भवनाम
२४ जिन नाम | भव |
संख्या १ आदिनाथ
| १धन्न सार्थवाह २ युगलिक ३ सौधर्म देवलोक में देव ४ महाबल विद्याधर राजा ५ ईसान देवलोके ललितांग देव ६ वज्रजंघ ७ युगलिक ८ सौधर्मकल्पे देव ९ जीवानंद वैद्य १० अच्युत देवलोके देव ११ वज्रनाभ चक्रवर्ति १२
सर्वार्थसिद्धि विमान में देव १३ तीर्थंकर आदिनाथ | २ | अजितनाथ ३ १ विमलवाहन राजा', २ विजय अनुत्तर
| विमान में देव, ३ तीर्थंकर अजितनाथ ३ | सम्भवनाथ
|१ विपुलवाहन राजा, २ सातवें अवेयक में
| देव, ३ तीर्थंकर संभवनाथ | ४ | अभिनन्दनस्वामी | १ महाबल राजा, २ विजय अनुत्तर विमान में |
| देव, ३ तीर्थंकर अभिनंदनस्वामी ५ |सुमतिनाथ
|१ राजकुमार पुरुषसिंह, २ वैजयन्त अनुत्तर
| विमान में देव', ३ तीर्थंकर सुमतिनाथ ६ | पद्मप्रभस्वामी | १ अपराजित राजा, २ नौवे ग्रैवेयक में देव,
|३ तीर्थंकर पद्मप्रभस्वामी ७ सुपार्श्वनाथ ३ १ नंदीषेण राजा, २ छटे सुमन ग्रैवेयक में|
देव, ३ तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ | ८ | चन्द्रप्रभस्वामी | १ श्रीब्रह्म राजा, २ सौधर्म देवलोक में देव,
३ अजितसेन चक्रवर्त्ति ४ अच्युत देवलोक में 1. सोमतिलकसूरि रचित सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- ‘विपुलबल’ नाम। 2. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- जयन्त विमान। 3. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- ‘अतिबल' नाम। 4. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- जयन्त विमान।
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९ | सुविधिनाथ
१० | शीतलनाथ
११ | श्रेयांसनाथ
१२ | वासुपूज्यस्वामी
१३ | विमलनाथ
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१४ अनन्तनाथ
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नवम्बर-२०१९ देव ५ पद्म राजा ६ वैजयंत अनुत्तर में देव ७ तीर्थंकर चंद्रप्रभस्वामी १ महापद्म राजा, २ आनत देवलोके देव, ३
तीर्थंकर सुविधिनाथ ३ |१ पद्मोत्तर राजा', २ प्राणत देवलोक में देव,
३ तीर्थंकर शीतलनाथ |१ नलिनीगुल्म राजा, २ बारहवे देवलोक में
देव, ३ तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ३ १ पद्मोत्तर राजा, २ प्राणत देवलोक में देव,
३ तीर्थंकर वासुपूज्यस्वामी ३ | १ पद्मसेन राजा, २ सहस्रार देवलोक में देव,
३ तीर्थंकर विमलनाथ १ पद्मरथ राजा, २ प्राणत देवलोक में देव, ३ तीर्थंकर अनंतनाथ | १ दृढरथ राजा, २ वैजयन्त विमान में देव', |३ तीर्थंकर धर्मनाथ १ श्रीषेण राजा २ युगलिक ३ सौधर्म देवलोक में देव ४ अमिततेज विद्याधर राजा ५ प्राणत देवलोक में देव ६ बलदेव अपराजित ७ अच्युत देवलोक में देव (इन्द्र) ८ वज्रायुध चक्रवर्ती ९ मनोरम ग्रैवेयक में | देव १० मेघरथ राजा ११ सर्वार्थसिद्ध विमान
में देव १२ तीर्थंकर शांतिनाथ | १ सिंहावह राजा, २ सर्वार्थसिद्ध विमान में | देव, ३ तीर्थंकर कुन्थुनाथ | १ धनपति राजा, २ सर्वार्थसिद्ध विमान में | देव, ३ तीर्थंकर अरनाथ
W |
१५ | धर्मनाथ
१६ शान्तिनाथ
१७ | कुन्थुनाथ
१८ | अरनाथ
5. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- ‘पद्म' नाम। 6. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- विजय विमान ।
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१९ | मल्लिनाथ
१ महाबल राजा', २ जयन्त विमान में देव,
३ तीर्थंकर मल्लिनाथ २० | मुनिसुव्रतस्वामी । ९ । | १ शिवकेतु राजा २ सौधर्म देवलोक में देव ३
कुबेरदत्त राजा ४ सनत्कुमार देवलोक में देव | ५ वज्रकुंडल राजा ६ (ब्रह्मलोक) देवलोक में | देव ७ श्रीवर्मा राजा ८ अपराजित अनुत्तर में
|देव ९ तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी २१ नमिनाथ
| १ सिद्धार्थ राजा, २ प्राणत देवलोक में देव, ३
| तीर्थंकर नमिनाथ २२ | नेमिनाथ
१ धन राजा, २ सौधर्मदेवलोक में देव, ३ चित्रगति राजा, ४ महेन्द्र देवलोक में देव ५, अपराजित राजा, ६ ११वें आरण देवलोक में देव ७ संख राजा ८ अपराजित अनुत्तर
में देव ९ तीर्थंकर नेमिनाथ | २३ | पार्श्वनाथ
१ अमरभूति (मरुभूति) २ हाथी ३ सहस्रार देवलोक में देव ४ किरणवेग विद्याधर का भव ५ अच्युत देवलोक में देव ६ वज्रनाभ राजा | ७ मध्य ग्रैवेयके देव ८ स्वर्णबाहु चक्री० ९
| प्राणत देवलोक में देव १० तीर्थंकर पार्श्वनाथ | २४ | महावीरस्वामी । २७ | १ ग्रामाधिपति नयसार २ सौधर्मदेवलोक में |
देव ३ भरतपुत्र मरीचि ४ ब्रह्म देवलोक में देव, उसके बाद त्रिदंडी के ६ एवं देव के ६ भव हुए, १७ राजा, १८ महाशुक्रदेवलोक में देव, १९ वासुदेव, २० नरक, २१ सिंह, २२ नरक, २३ चक्रवर्ति, २४ देव, २५ राजा, २६ | प्राणत देवलोके देव, २७ तीर्थंकर महावीर
7 सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- वैश्रमण। 8. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे-सप्रतिष्ठ । 9. त्रिषष्टि आदि अधिकतर ग्रंथों में मरुभूति नाम मिलता है। 10. सप्ततिशतस्थानक ग्रंथे- आनंद।
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नवम्बर-२०१९ कर्ता परिचय
इस कृति के कर्ता तपागच्छीय श्रीविजयसेनसूरिजी के शिष्य संघविजय हैं । इस कर्ता की अन्य दो कृतियों प्राप्त होती है यथा- कल्पसूत्र की कल्पप्रदीपिका टीका तथा २८ श्लोक प्रमाण प्रायः अप्रगट कृति २४ जिन स्तोत्र । कर्ता का समय कल्पसूत्र की कल्पप्रदीपिका टीका के अनुसार वि.सं. १६७४ है । इसके अलावा कर्ता के बारे में विशेष कोई माहिती उपलब्ध नहीं हो पाई है। प्रत परिचय
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा की एक मात्र प्रत क्र. ३३२६४ के आधार पर किया गया है । कुल पत्र संख्या २ है । प्रत की लिखावट सरल व सुवाच्य है, कहीं-कहीं पानी से प्रभावित होने के कारण स्याही फैल गयी है । प्रत की स्थिति श्रेष्ठ है । प्रत की लंबाई-चौडाई २५४११ है । पंक्ति संख्या १४ से १५ एवं प्रति पंक्ति अक्षर संख्या लगभग ४८ से ५० है । अक्षरों के मरोड, अक्षर मात्रा व लिखावट से १८वीं उत्तरार्द्ध यानि १७८० से १८०० के बीच प्रत लिखे जाने का अनुमान है । प्रत संशोधित नहीं है फिर भी शुद्धप्राय है । सम्भव है शुद्ध प्रत पर से प्रतिलिपि की गई हो । प्रसंगोचित अवग्रहमात्रा भी मिलती है । प्रतिलेखक ने कर्ता कृत मंगलाचरण को श्लोकांक-१ देकर कृतिगत विषयवस्तु प्रारंभ होने पर पुनः वहाँ स्वतंत्र क्रम में श्लोकांक-१ दिया है ।
२४ जिन १३८ पूर्वभववर्णन स्तव GO॥ श्रीशर्खेश्वरपार्श्वनाथमनघं नत्वा जगत्स्वामिनं, स्मृत्वा च स्वगुरुं समीहितकृतौ स्वाहाभुजां शाखिनम् । वाग्देवीचरणारविन्दयुगलं ध्यात्वा मनोजाड्यभिद्, वक्ष्ये सम्प्रति तीर्थकृद्भवततिं संवित्तये मादृशाम् १. आदिनाथ सार्थेशो१ युगलं२ सुरो३ नरपतिः४ स्वर्गे द्वितीये सुरः५, षष्ठे जन्मनि मेदिनीपरिवृढः श्रीवज्रजङ्घाभिधः६। युग्मी देवकुरौ७ सुरोऽष्टमभवे८ वैद्यो९-ऽच्युते निर्जर:१० षट्खण्डाधिपति ११स्त्वनुत्तरसुरः१२ श्रीमारुदेवो१३ऽवतात् ॥१(२)॥
॥१॥
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॥३॥
॥४॥
SHRUTSAGAR
___21 २. अजितनाथ जम्बूपूर्वविदेहवत्सविजये श्रीमत्सुसीमापुरे, क्ष्मापालः प्रथमे भवे ऽरिदमनाचार्यान्तिकात्तव्रतः१ । सञ्जातो विजये ततः सुरवरः श्रीमान् द्वितीये भवे२, तीर्थेशो जितशत्रुभूपतनयश्चुत्वा ततोऽनुत्तरात् ३. संभवनाथ पूर्वे जन्मनि नीति-रीतिनिपुणो विश्वम्भरायाः प्रभुः, सञ्जातो रमणीयनाम्नि विजये प्रव्रज्य पार्श्वे गुरोः । आराध्यानशनं च दानवरिपुर्णैवेयके सप्तमे, सेनायास्तनयस्तृतीयजनुषि श्रीश(स)म्भवः स्तात् श्रिये ४. अभिनंदनस्वामी जातो रत्नपुरे महाबल इति ख्यातः क्षितीशो भवे, पौरस्त्येविमलाख्यसूरिनिकटोपात्तव्रतो जीविता(त?)म् । पूर्णीकृत्य जयन्तनामनि महा-वर्ये विमाने सुरः, स्वामी श्रीअभिनन्दनस्तनुमतां देयादमेयं सुखम् ५. सुमतिनाथ आद्ये जन्मनि कीर्तिमानतिबलः क्षमापालचूडामणिः, श्रीसीमन्धरसूरिपादसविधे लात्वा तपस्यां पुनः । निर्मायानशनं द्वितीयजनने जातो जयन्ते सुरस्तीर्थेशः सुमतिः समस्तजगतां भूयाद् विपत्तिच्छिदे ६. पद्मप्रभस्वामी पूर्वं श्रीअपराजिताभिधमहीभुग् धातकीखण्डके, जातः पूर्वविदेहवत्सविजयालङ्कारही(हा?)रोपमः । आदाय व्रतमादरेण नवमे ग्रैवेयके निर्जरः, श्रीपद्मप्रभनामधेयजिनराट् श्रेयः सतां यच्छतु
॥५॥
॥६॥
॥७॥
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नवम्बर-२०१९
॥८॥
॥९॥
श्रुतसागर ७. सुपार्श्वनाथ आद्ये जन्मनि नन्दिराजनृपतिः श्रीधातकीद्वीपगः, श्रीमत्पूर्वविदेहमध्यगशुभापुर्याः प्रभुतान्वितः । निर्दोषव्रतधारकोऽरिदमनाचार्यस्य पादान्तिके, गीर्वाणः प्रवरो भवत् सुमनसे सार्वः सुपार्श्वस्ततः ८. चंद्रप्रभस्वामी श्रीब्रह्माभिधभूपतिः१ सुरवरः सौधर्मकल्पे२ ततो, जातश्चक्रधरो३ऽच्युते सुरपति४भूपश्च पद्माभिधः५ । दीक्षां तत्र ललौ युगन्धरगुरोः पार्श्वे सुरोऽनुत्तरे६, श्रीचन्द्रप्रभतीर्थपस्त्रिजगतां चक्रे मनस्सु स्थितिम् ९. सुविधिनाथ निश्शेषावनिपालमस्तकमणिद्वीपे तृतीये भवे, पूर्वे पूर्णगुणान्वितोऽजनि महापद्माभिधो भूपतिश्चारित्रं प्रतिपाल्य सर्वजगदानन्दान्तिके त्वानते, गीर्वाणस्तदनन्तरं जिनपतिः सुग्रीवभूपात्मजः १०. शीतलनाथ पद्माख्योऽजनि मेदिनीपरिवृढः शास्ता सुसीमापुरः, प्रव्रज्यां प्रतिपद्य दैवतवरः कल्पे पुनः प्राणते। नन्दाकुक्षिसरोजिनीमधुकरस्तीर्थाधिपः शीतलः, पाथोजन्मसहोदरो दृढरथक्ष्मापालवंशाम्बरे ११. श्रेयांसनाथ द्वीपे पुष्करसञके च नलिनीगुल्माख्यभूमीप्रभुः, जातः सारशुभापुरीपरिवृढः श्रीवज्रदन्तान्तिके। त्यक्त्वा सर्व परिग्रहं सुरवरः कल्पे पुनदशे, सूनुर्विष्णुमहीपतेर्विजयते श्रेयांसनामा जिनः
॥१०॥
॥११॥
॥१२॥
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॥१४॥
SHRUTSAGAR १२. वासुपूज्यस्वामी स्वामी रत्नपुरस्य पुष्करवरप्राचीविदेहेऽभवत्, श्रीपद्योत्तरनामभूपतिवरः श्रीवज्रनाभं गुरुम् । साक्षीकृत्य तपस्वितस्त्रिदशतां प्राप्तः पुनः प्राणते, सर्वेषां विदधातु वाञ्छितफलं श्रीवासुपूज्यो जिनः १३. विमलनाथ
क्षेत्रे भारतनामनि क्षितिपतिः श्रीपद्मसेनाभिधः, पूर्वस्मिन् जनने किलाऽजनि महा-पूर्या नगर्याः प्रभुः। प्रव्रज्याऽष्टमदेवलोकविबुधः श्रीसर्वगुप्त्य(प्ता)न्तिके, श्यामायास्तनयस्त्रयो दश जिनश्च्युत्वा ततः स्वर्गतः १४. अनंतनाथ श्रीमान् द्यरथाभिधाननृपतिः पौरस्त्यजन्मन्यभूत्, सूरेश्चित्ररथाभिधस्य निकटे दीक्षां विशुद्धां श्रितः । पश्चात् प्राणतकल्पवासि विबुधो निर्माय शुद्धं तपस्तार्तीयीकभवे चतुर्दशजिनः श्रीसिंहसेनाङ्गजः १५. धर्मनाथ मानामधिनायको दृढरथः श्रीभद्दिलाख्ये पुरे, पार्श्वे श्रीविमलादिवाहनगुरोरादाय शुद्धं व्रतम् । सम्पूर्णे निजजीविते च विजये जातः सुराणां वरः, पुण्याम्भोजविबोधवासरमणिः श्रीधर्मनाथस्ततः १६. शांतिनाथ श्रीषेणाभिधभूपतियुगलकंर सौधर्मकल्पे सुरो३, वैताढ्ये च नभश्चरः४ सुरवरः५ कल्पेऽभवत् प्राणते। सीरास्त्रपस्त्वपराजितोऽच्युतधरो७ वज्रायुधश्चक्रभृद्८, देवो भूत् सुजये नृपो घनरथो१० देवो११ जिनः षोडशः१२
॥१५॥
॥१६॥
॥१६(१७)॥
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नवम्बर-२०१९
॥१८॥
॥१९॥
श्रुतसागर १७. कुंथुनाथ आये(द्य)-द्वीपविदेहसत्कविलसत्खड्गीपुराधीश्वरो, भूपश्रेणिशिरोवतंससदृशः सिंहावहाख्यो नृपः। श्रीमत्संवरपार्श्वसंयमधरः सर्वार्थसिद्धौ सुरः श्रीसूरक्षितिपालसूनुरजनि श्रीकुन्थुनाथो जिनः १८. अरनाथ जम्बूपूर्वविदेहवत्सविजये भास्वत्सुसीमापुरीसुस्वामी वसुधाधवो धनपतिः श्रीसंवरस्याऽन्तिके। प्रान्ते प्रव्रजितो बभूव विबुधः सर्वार्थसिद्धौ ततः(तो), देवीकुक्षिसरोजशोणचरणः श्रीमानरस्तीर्थकृत् १९. मल्लिनाथ धारण्यास्तनुजो महाबलनृपः श्रीवीतशोकापुरी, त्यक्त्वा पञ्चनितम्बिनीश्च जनने पूर्वं प्रपेदे व्रतम् । षण्मित्रैः सह निर्जरोऽजनि जयन्ताख्ये विमाने पुनः, श्रीमत्कुम्भनराधिनाथतनयः श्रीमल्लिनाथः प्रभुः २०. मुनिसुव्रतस्वामी राजा श्रीशिवकेतुश्रादिमभवे सौधर्मवृन्दारको२, न्यायोपेतकुबेरदत्तनृपतिर्देवस्तृतीये दिवे४ । सञ्जातः किल वज्रकुण्डलनृपः५ षष्टे सुरस्ताविषे६ श्रीवर्मा७ त्वपराजिते८ऽमरवरः श्रीसुव्रतस्तीर्थपः९ २१. नमिनाथ कौशाम्बीनगरीप्रभुः प्रणयवान् सिद्धार्थनामा नृपो, दीक्षां प्राप्य तरी भवोदधिजले नन्दाख्यगुर्वन्तिके। कल्पे प्राणतनामनि त्रिदिव(वि?)षज्जन्मा द्वितीये ततः सूनुः श्रीविजयाभिधाननृपतेस्तीर्थङ्करः श्रीनमिः
॥२०॥
॥२१॥
॥२२॥
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SHRUTSAGAR
November-2019 २२. नेमिनाथ विख्यातो धनभूपति१र्द्धनवतीप्राणाधिनाथः सुरः, सौधर्मे२ च बभूव चित्रगतिको३ माहेन्द्र कल्पे सुरः। भूपः५ श्रीअपराजितस्त्रिदिविषत्त्वे कादशेताविषे, शङ्खो७ नाम नृपोऽपराजितसुरः८ श्रीनेमिनाथ९स्ततः
॥२३॥ २३. पार्श्वनाथ भूदेवोऽमरभूतिश्राद्यजनुषि स्तम्बरम२श्चाष्टमे, स्वर्गेऽभूत् त्रिदशः३ खगो४ऽच्युतसुरः५ श्रीवज्रनाभो६ नृपः। देवो७ राज्यधरोष्ट८मे च जनने स्वर्गी९ पुनः प्राणते, श्रीवामेय१०जिनेश्वरः सृजतु मे श्रेयांसि भूयांसि सः
॥२४॥ २४. महावीरस्वामी ग्रामस्याधिपति(तिः)१सुरोरभरतसूइर्देव४स्त्रिदण्डी५ तथा, षट्वारं [?]१० तथैव दानवरिपु१६ प:१७सुरश्चा१८जनि। विष्णु१९नैरयिको२० हरि२१नरकग२२श्चक्री२३ सुरो२४ भूपति२५ देवः प्राणतता विषेऽन्तिमजिनः सोऽस्तु श्रिये प्राणिनाम् सप्त७ श्रीशशिनस्त्रयोदश भवाः श्रीमारुदेवप्रभोः२० शान्तेदश३२ नेमिनो नव४१नव श्रीसुव्रतस्वामिनः५० । श्रीवीरस्य जिनेशितुर्भगवतः सप्ताधिका विंशतिः७७ श्रीपार्श्वस्य८७ दश स्मृताः कविवरैः शेषार्हतां च त्रयः५१/१३८ ॥२६॥ इत्थं स्मृता विजयसेनमुनीन्द्रचन्द्र-शिष्येण सङ्घविजयेन मुदां भरेण श्रीवर्तमानजिनपुङ्गवपूर्वजन्म-पङ्क्तिः समीहितविधौ सुरशाखिशाखाः ॥२७॥
इति चतुर्विंशतिजिन १३८ भवकथनस्तवः ॥
॥२५॥
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ श्री हर्ष मुनि कृत वासुपूज्यजिन स्तवन
__ गणि सुयशचंद्रविजयजी प्रस्तुत कृति वासुपूज्यस्वामीनी गुणस्तवना रूप लघु रचना छे। जो के अहीं प्रभुनी गुणस्तवना विशेषे देहस्वरुपने केंद्रमा राखी कराई छे तेथी प्रभुनी देह द्युतिऊंचाई-मुगुटादि अलंकारोना वर्णनना पद्यो विशेष जोवा मळे छ।
कृतिनी भाषा मारुगुर्जर छ। लहियानी असावधानीथी थोडा स्थानोए पदार्थ अस्पष्ट थतो हतो जे अमे नाना-मोटा कौंसमां सुधार्यो छे।
कृति विजयसेनसूरिजीना शिष्य गुणविजयजीना शिष्य (प्रायः हर्षविजय नाम हशे?)नी रचना छ। काव्यमां कवि नामनो स्पष्ट उल्लेख नथी परंतं “हर्ष” शब्दने कृतिकारना नाम तरीके अटकळ करी छे जो के तेमनी परंपरा के अन्य कतिओ विशे कंईक मळे तो वात प्रमाणिक ठरे।
प्रान्ते प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत Zerox आपवा बदल श्री गोडीजी श्वे.मू.जैन संघ (मुंबई)ना व्यवस्थापकश्रीनो खूब खूभ आभार।
श्रीवासपज्यजिन स्तवन
॥राग-सारंग। सरसति भगवति चित्त धरी, प्रणमी सदगुरु पाय ललना। बारमो जिनवर भटि(टी)इ, हईअडलइ हरख न माय ललना,
तुं मेरे मनि वल्लहो ॥१।। जिनजी तुं मेरे मनि वल्लहो, जिउ मनि कमल दिणदलउ। उगइउ विकसीइ(?), दो(हो)इ मनि अतिआणंद ललना, तुं मेरे...॥ (आंचली) महिअल जासि सोहि सदा, वासुपूज्य जगदीस ललना। जिन तणो महिमा अति घणो, जन केरी पूरि जगीस ललना ॥२॥ तुं मेरे... अनोपम सूरति जिन केरी, निरखतां आनंदपूर ललना। भविजन भगति पूजा करि, तस घरि हुइ(सुख) भरपूर ललना ॥३॥तुं मेरे...
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November-2019
॥४॥तुं मेरे...
॥५॥तुं मेरे...
॥६॥तुं मेरे..
॥७॥तुं मेरे...
SHRUTSAGAR वसुपूज्य केरो नंदन, जयादेवी {अ}-उअरि मराल ललना। सीति(त्त)रिधनुष तनु सोहतुं, रक्तवरण विशाल ललना नयणकमल अनिआलडां, मुख-जीत्यो पु(पू)निमचंद ललना। निलवरि दीपइ दिनकरू, जीह अमीनो कंद ललना मस्तकि मणि रयणे जड्यो, मुगर सोहि{अ} उदार ललना। कुंडल दो रवि शशि(शी) जीपता, कंठि एकाउलि हार ललना अंगि आंगी शोभती, विव(वि)धि(ध) कथिया-भाति ललना। अगर चंदन बहु महिमहि, बहुत फुलनी जाति ललना दमणो मरुउ केतकी, जु(जू)ही जाय गुलाब ललना। नर नारी बहु भगति करि, कापि का(पा)ति[ग] उदार(?) ललना तुं कामि तरूवर(कुंभ) सुरतरू, तुझ नामि हुइ जयकार ललना। वंछित-पदारथ तुझ नामि, तुं जयो जयो जगदाधार ललना अचिंत चिंतामणि तुं सही, तुं प्रभु गरीबनिवास ललना। तुझ [पद]पंकज सेवतां, वंछित सीझइ काज ललना तपगच्छगगनि दिवाकरू, श्रीविजयसेनमुनिंद ललना। गुणविजय शिष्य गुणस्तवि, हर्ष धरी आणंद ललना
॥इति ॥ __ * . *
॥८॥तुं मेरे...
॥९॥तुं मेरे...
॥१०||तुं मेरे...
॥११॥तुं मेरे..
F" क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ?
__ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में लिखित विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित बहुमूल्य पुस्तकों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम ज्ञानभंडारों को भेंट में देते हैं। भेंट में देने योग्य पुस्तकों की सूची तैयार है। यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं, तो यथाशीघ्र संपर्क करें। पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी।
ग्रंथपाल
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श्रुतसागर
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नवम्बर-२०१९
गुजराती माटे देवनागरी लिपि के हिन्दी माटे गुजराती लिपि?
हिन्दवी (गतांकथी आगळ..)
संस्कृत भणता गुजरातीओ देवनागरी लिपि (प्राथमिक शाळामां के घेर नहीं तो) हाईस्कूलमां पेसतां शीखे छे। निशाळे जता बधा ज गुजरातीओ आ सहेली रीते देवनागरी लिपि तो शीखी जाय, पछी गुजराती चोपडी के छापां ए डपकाशाई वधु खर्चाळ लिपिमां छापवानी शी जरूर, ए उपाय के योजना शो वधारे लाभ खटवी आपे वारु? __ बीजो विचार आ प्राप्त थाय छे के गुजराती चोपडी छापां देवनागरीमां छापीए अथवा हिन्दी चोपडी छापांमांथी केटलांक गुजराती लिपिमा छापिए, ए बे पर्यायमांथी हिन्दी ज्ञान गुजरातीमां वधारवाने माटे म्हने तो पहेला करतां बीजो वधारे व्यवहारु जणाय छे । वळी ऐक्य वधारवा माटे बनतुं करवानी फरज छे तो ते एकला गुजरातीओनी थोडी ज छे।
हिन्दी भाषा पथरायेली छे ते विशाळ प्रदेशना वतनीओने माथे पण ए फरज जरा पण ओछी ना गणाय, ए कोट्यवधि जनता पोतानी फरजने अनुरूप कशुं ना करे तथापि आपणे गुजरातीओए तो करी छूटवू, ए तो आकळापणुं कहेवाय । एओ केटलांक हिन्दी पुस्तक छापां गुजराती लिपिमां छापे अने आपणे केटलांक गुजराती पुस्तक छापां देवनागरीमा छापीए, एम साथे साथे सहकारमा प्रवृत्ति चाले तो बेवडी शोभे अने कदाच विशेष लाभदायी पण नीवडे । जो के आम पण म्हने तो उपर आवी गयेलो रस्तो वधारे व्यवहारु लागे छे।
आपणी वाचनमालामां जेम देवनागरीनो परिचय आपीए तेम एमनी हिन्दी वाचनमालामां गुजराती लिपिनो आपवामां आवे, ए बेवडो मार्ग ज म्हने तो सौथी वधारे रुचे।
हिन्दी वाचनमालामां लिपिनो समास मागीए तो (मराठीनो सवाल छे नहीं एटले) बंगाळी लिपिने पण स्थान मळवू जोईए, एवी मागणी सामे पण कशो वांधो देखातो नथी।
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SHRUTSAGAR
November-2019 गुजराती बंगाळी बेय लिपि देवनागरीने अतिनिकट छ। त्रीजी कोई एटली निकट छे नहीं। हिन्दी बोलती जनतानो पथारो एटलो तो विस्तीर्ण छे के तेनो एक मोटो विभाग बंगाळीनो अने बीजो मोटो विभाग गुजरातीनो शाखपाडोशी छे। भले पूर्व विभागमां वाचनमालामां बंगाळी लिपिने स्थान मळे, बीजामां गुजरातीने।
तथापि आटलेथी विषयनी समाप्ति थती नथी। हजी मोटामां मोटी व्यवहारु बाबत तो रही जाय छ । भाषाशास्त्रनी दृष्टिए हिन्दी-ऊर्दु एक ज भाषा छे, बे नथी, ए साच उपर रजू थई गयु छ । भाषा एक लिपि बे कोईपण विषयने लखतां बोलतां अगत्यना शब्दो माटे संस्कृत तत्सम-तदभवो उपर वधारे आधार राखे हिंदी गणाय, तेम फारसी, अरबी तत्सम तद्भवो वधारे वापरे ते उर्दु गणाय, एवी आ हिन्दी-ऊर्दु भाषानी द्वैमातृक स्थिति छ।
हिन्दी-ऊर्दु भाषाप्रदेशनी अनेककोटि प्रजामां ज एकता नथी। कुटुम्ब एक माताओ बे, ए बे वच्चेनो एखलास सपत्नीओनो। हिन्दी बोलता लखता भाईओ अने ऊर्दु बोलता लखता भाईओ सगा भाईओ छे नहीं, वगेरे, वगेरे। आवा संकर जथानी साथे ऐक्य जमावटनी भावनाने रमाडतां खिलवतां, एकली हिन्दी भाषा अने एकली देवनागरी लिपिनी वातो करवी, ए म्हारा जेवाथी नहीं बने । हुं संस्कृत कंईक जाणुं छु । ऊर्दु कंईक शीखेलो, ते वर्षोथी भूली गयो छु।
हिन्दी वाचन अने हिन्दी बोली म्हने मराठी जेटलां ज साध्य छे, बंने प्रदेशमां वर्षो गाळेलां एटले अनायासे अने बंगाळी कंईक शीखेलो छु । भाषा छे साहित्य माटे, अने साहित्य वडे, जेम मनुष्यजीवन सार्थक छे मोक्षभावनाना प्रकाशे प्रकाशित होय एटलं, ए दृष्टिबिंदु उपर आवी गयु छ । ____बंगाळी साहित्य माटे म्हने मान छ । मराठी के हिन्दी साहित्य माटे म्हने तेटलुं नथी। गुजराती साहित्य करतां बंगाळी गुणवत्ताए चडे, ए स्वीकारुं छु। पण हिन्दी के मराठी साहित्य गुणवत्ताए चडे, एम म्हने तो नथी देखातुं । ए बेना करतां तो ऊर्दु साहित्यमां केटलीक विशिष्ट गुणवत्ता होवानो संभव स्वीकारुं छु ।
(क्रमशः)
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नवम्बर-२०१९ प्राचीन पाण्डुलिपियों की संरक्षण विधि
राहुल आर. त्रिवेदी मनुष्य का स्वभाव रहा है कि वह किसी भी वस्तु या व्यक्ति को जाने बिना तत्संबंधी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। कुछ ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिनका कार्य करना ही पुण्य का काम होता है, पाण्डुलिपियों का कार्य भी कुछ ऐसा ही है। पाण्डुलिपि या हस्तलिखित ग्रंथो का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, उसे जानने के लिए विस्तार से अध्ययन करना होगा, परन्तु पाण्डुलिपियों का क्या महत्त्व है यह जानना आवश्यक है। सबसे पहले पाण्डुलिपि किसे कहते हैं, यह जानना जरूरी है। प्राचीनकाल में मानव द्वारा ग्रन्थों को हस्तनिर्मित ताडपत्र, भोजपत्र, बाँस, कपड़े, कागज़ आदि पर हाथ से लिखा जाता था। कुछ क्षेत्रों में उस कागज पर पीले-पाण्डुरंग की हरताल पुति होने के कारण इन्हें पाण्डुलिपि कहा जाता था। मुद्रणयुग से पूर्व स्वाध्याय व ज्ञान के प्रचार-प्रसार का माध्यम ये पाण्डुलिपियाँ ही थीं।
इन पांडुलिपियों के हजारों वर्षों पूर्व के इतिहास को दर्शाने का कार्य लिपियाँ ही करती हैं । लिपि जिसका अर्थ है-लीपना, लिखना। जैन परंपरा के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान देकर लिखना सिखाया उसके आधार पर भारत वर्ष की मूल लिपि का नाम ब्राह्मी रखा गया। विश्व की अन्य लिपियों का उद्भव कब हुआ यह तो प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु यह तय है कि मनुष्य ने भाषा पहले और लिपि बाद में अर्जित की। तथापि सभ्यता के विकास में लिपि के योगदान को भाषागत योगदान से कम नहीं आंका जा सकता है। अतः लिपि व लेखनकला के अविष्कार को मनुष्य का सर्वोत्कृष्ट आविष्कार माना जा सकता है। समय-समय पर अलग-अलग साधनों के ऊपर लिखने की परम्परा रही है। व्यावहारिक दृष्टि से भाषा और लिपि दोनों एक-दूसरे के लिए नितान्त अनिवार्य हैं।
मानव सभ्यता के विकास में इन पांडुलिपियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वर्तमान में भारत में ५० लाख से अधिक कदाचित एक करोड के आसपास हस्तलिखित ग्रंथ होने की संभावना है। इन अमूल्य ग्रंथों का संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है।
हस्तप्रतों के संरक्षण की जानकारी लेने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि संरक्षण किसे कहते है? संरक्षण अर्थात् सभी प्रकार की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष क्रिया, जिससे
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SHRUTSAGAR
___November-2019 प्राचीन व ऐतिहासिक सम्पदाओं अथवा कलाकृतियों को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सके।
संरक्षण के तीन प्रकार हैं, १) सुरक्षात्मक संरक्षण (Preventive conservation) २) उपचारात्मक संरक्षण (Curative conservation) ३) पुनरुद्धार (Restoration)।
सुरक्षात्मक संरक्षण- सभी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से की गई सुरक्षात्मक प्रक्रिया, जिससे भविष्य में हस्तप्रत या कलाकृति को नष्ट होने से बचाया जा सके। (वस्तु यथावत् रूप में विद्यमान रहे)
उपचारात्मक संरक्षण- सभी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किया गया उपचार जिससे नष्ट हो रही या खंडित हो चुकी हस्तप्रत या कलाकृति को मजबूती प्रदान कर उपयोग में लाने योग्य बनाया जा सके।
पुनरुद्धार- किसी भी विशीर्ण हो चुकी ऐतिहासिक संपदा अथवा कलाकृति को मरम्मत के द्वारा उसके मूल रूप में लाने की प्रक्रिया को पुनरुद्धार कहते हैं।
संरक्षण कार्य के अंतर्गत प्राथमिक उपचार की दृष्टि से सुरक्षात्मक संरक्षण महत्त्वपूर्ण होने के कारण हम सर्वप्रथम सुरक्षात्मक संरक्षण के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे।
क्रमशः
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ पुस्तक समीक्षा
रामप्रकाश झा पुस्तक नाम - व्यधिकरणम् (भाग-१,२/२) विवरण - मुनि श्री पद्मकीर्तिविजयजी प्रकाशक - सम्यग् साहित्य प्रकाशन, अहमदाबाद प्रकाशन वर्ष - वि. सं. २०७५ मूल्य - २००/- (प्रत्येक भाग) भाषा - संस्कृत
जैनशासन में प्राचीन काल से ही न्याय का महत्त्व स्वीकार किया गया है। पूर्वकाल में प्राचीन न्याय ही अस्तित्व में था। पदार्थ का तर्कयुक्त निरूपण करने के लिए अनेक दर्शनकारों ने इसका उपयोग किया था। परन्त कालान्तर में क्रमशः अनेक नई-नई तर्कशैलियाँ विकसित हुईं। इस नवविकसित तर्कशैली को नव्यन्याय के नाम से जाना जाने लगा। आधुनिक दर्शनकारों ने इस नई शैली का व्यापक रूप से उपयोग किया है। जैनों ने भी अपने शास्त्रसम्मत स्याद्वाद को नया रूप देने के लिए इस नई शैली को स्वीकार किया। जैनशासन की विद्यमान श्रुतसमृद्धि का अवलोकन करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस शैली का सर्वाधिक उपयोग यदि किसी जैन विद्वान ने किया है तो वे न्यायाचार्य, न्यायविशारद महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज हैं। उन्होंने नव्यन्याय की तर्कशैली का आधार लेकर अन्य दर्शनों के द्वारा जिनशासन के ऊपर हए असत् आक्षेपों का निराकरण करने के साथ-साथ स्याद्वाद सिद्धान्त का समर्थन करते हुए जैनशासन की जयपताका दिगदिगन्त में लहरायी। ____ नव्यन्याय का भारतीय दर्शनों में एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्री गंगेशोपाध्याय नव्यन्याय के आद्य पुरुष के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने तत्त्वचिंतामणि की रचना की, जिसके ऊपर अनेक विद्वानों ने टीकाएँ रची हैं। श्री रघुनाथ शिरोमणि भट्टाचार्य ने दीधिति नामकी टीका रची। दीधिति के ऊपर श्री मथुरानाथ तर्कवागीश, श्री जगदीश तर्कालंकार तथा गदाधर भट्टाचार्य ने अलग-अलग टीकाओं की रचना की। इन टीकाओं में चार प्रमाणों – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द में से अनुमान प्रमाण के ऊपर प्रकाश डाला गया है। अनुमान प्रमाण की सिद्धि व्याप्ति के द्वारा हो सके, इसके लिए प्रारम्भ में हेतु और साध्य के सहचार के रूप में व्याप्ति का विचार किया गया और व्याप्ति के दो भाग किए गए – १. पूर्वपक्षव्याप्ति और २. उत्तरपक्षव्याप्ति । पूर्वपक्षव्याप्ति २२ हैं, पाँच व्याप्तिपंचक, तीन सिंहव्याघ्र और
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November-2019 चौदह व्यधिकरण । उत्तरपक्षव्याप्ति का समावेश सिद्धान्तलक्षण में किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के इन दो भागों में व्यधिकरण के चौदह में से प्रथम दो लक्षण, जिसकी रचना दीधितिकार ने स्वयं की है, उसका विवरण किया गया है। प्रथम लक्षण में हेतु के साथ अभाव के समानाधिकरण्य को लेकर लक्षण बनाया गया है, जबकि दुसरे लक्षण में हेतुतावच्छेदकावच्छिन्न के साथ अभाव के समानाधिकरण्य को लेकर लक्षण बनाया गया है। इस ग्रन्थ की दोनों टीकाओं, जागदीशी और गादाधरी का उपयोग अधिकांशतः किया जाता है। जगदीश तर्कालंकार स्पष्ट, सचोट और तर्कपूर्ण निरूपण करते हैं, जबकि गदाधर भट्टाचार्य गहराईपूर्वक मूलगामी पदार्थ का निरूपण करते हैं। दोनों विद्वान अत्यन्त आदरणीय और तार्किक हैं। परन्तु वर्तमान जीवों के क्षयोपशम को ध्यान में रखते हुए गदाधर भट्टाचार्य अधिक उपयोगी होने के कारण उनकी टीका का ही विवरण ताताचार्यजी की टीका के आधार पर किया गया है।
इस ग्रन्थ में संग्रहित सभी चौदह लक्षण अलग-अलग विद्वानों द्वारा रचे गए हैं, उनमें से यहाँ दीधितिकार के दो लक्षण, चक्रवर्ती का एक लक्षण, प्रगल्भ के दो लक्षण, विशारद का एक लक्षण मिश्र के तीन लक्षण, सार्वभौम का एक लक्षण, उसके आक्षेप से दीधितिकार का एक लक्षण तथा सार्वभौम का एक पुच्छलक्षण इस प्रकार कुल चौदह लक्षणों का निरूपण किया जाएगा। आचार्य विजयपुण्यकीर्तिसूरिजी के शिष्य मुनि श्री पद्मकीर्तिविजयजी गणिवर ने अभ्यासियों की सुविधा के लिए प्रथम भाग में प्रथम लक्षण का और द्वितीय भाग में प्रथम लक्षण का विवरण पूर्ण करते हुए द्वितीय लक्षण का सुगम्य विवरण गुजराती भाषा में किया है। गुजराती भाषा में विवरण होने के कारण यह ग्रन्थ जैन न्याय के अभ्यासियों तथा विद्वानों के लिए बहूपयोगी सिद्ध होगा।
वस्तुतः न्याय एक परिष्कृत दर्शनशैली है । दर्शन की परिभाषा का उपयोग करने के लिए प्रत्येक दर्शनकार को इसकी आवश्यकता पड़ती है। कारण कि उसके बिना पदार्थ का सचोट व तर्कयुक्त निरूपण सम्भव नहीं है। इसीलिए प्रत्येक दर्शनकार ने इस शैली को अपनाया, जिससे इसकी व्यापकता बढ़ती गई। इस ग्रन्थ का अभ्यास कर मुमुक्षुजन तर्कयुक्त बुद्धि की तीव्रता को प्राप्तकर आगमग्रन्थों का अनुशीलन कर स्वपर कल्याण करनेवाले बनेंगे, ऐसा विश्वास है।
पूज्यश्रीजी की यह रचना प्रत्येक दर्शनकार के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति है। संघ, विद्वद्वर्ग व जिज्ञासु इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं। मुनिश्री का साहित्यसर्जन निरंतर जारी रहे, ऐसी शुभेच्छा है।
पूज्य मुनिश्री के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन ।
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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ समाचारसार आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में दीपावली चोपड़ापूजन व ज्ञानपंचमी का भव्य आयोजन दि. २७-१०-२०१९ को दोपहर ३:०० बजे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में प्रतिवर्ष की भाँति लक्ष्मीपूजन व चोपड़ापूजन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। जापमग्न प. पू. आचार्य श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में श्री श्रीपालभाई शाह, श्री दर्शितभाई शाह, श्री डिम्पलभाई शाह, श्री कल्पेशभाई वी. शाह, कारोबारी श्री रजनीभाई शाह तथा श्री विक्रमभाई ब्रोकर आदि ट्रस्टीमंडल के द्वारा लक्ष्मीपूजन व चोपड़ापूजन किया गया। चोपड़ापूजन के अन्त में गुरु गौतम स्वामी तथा सरस्वती माता की भावपूर्ण स्तुति की गई। इस अवसर पर ज्ञानमन्दिर के सभी कार्यकर्ता तथा आमन्त्रित अतिथि भी उपस्थित थे।
ज्ञानमन्दिर के पंडित श्री गजेन्द्रभाई शाह ने जैन पद्धति से शारदापूजन विधि कराई। अन्त में सामूहिक स्तुति-वन्दना आरती आदि की गई तथा उपस्थित श्रद्धालुओं ने गुरुवन्दन कर प. पू. आचार्य श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा. से मांगलिक मन्त्रों द्वारा आशीर्वाद ग्रहण किया।
दि. १-११-१९ को ज्ञानपंचमी के शुभ अवसर पर आचार्य लक्ष्मीसूरि विरचित ज्ञानपंचमीपर्व देववंदन किया एवं ज्ञानमन्दिर में संग्रहित हस्तलिखित व मुद्रित ग्रन्थों का पूजन किया गया। ज्ञानमंदिर में दर्शनार्थ पधारे श्रुतभक्तों ने ताड़पत्रों पर लिखे गए आगमग्रन्थों तथा अन्य शास्त्रग्रन्थों का श्रद्धाभक्तिपूर्वक वासक्षेप से पूजन तथा चैत्यवंदन किया । इस अवसर पर सभी कार्यकर्ता उपस्थित थे। सभीने श्रुतपूजन किया तथा माता सरस्वती की भावपूर्ण स्तवना की।
दि. १२-११-१९ कार्तिक पूनम के दिन प.पू. आचार्य श्री अमृतसागरसूरिजी म. सा., प.पू. आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरिजी म.सा. आचार्य श्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी म. सा. तथा मुनि श्री कैलासपद्मसागरजी म. सा. का चातुर्मास परिवर्तन कोबा तीर्थ में अवस्थित नए उपाश्रय में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर संगीत वाद्य के साथ श्रद्धालुओं ने प. पू. गुरुभगवन्तों के सामैया में भाग लिया। चातुर्मास परिवर्तन के पश्चात् उपाश्रय में प. पू. गुरुभगवन्तों के सुमधुर प्रवचन व मांगलिक हुए तथा उपस्थित श्रद्धालुओं ने नवकारशी का लाभ लिया।
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में आयोजित
ज्ञानपंचमी आराधना की झलकियाँ
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