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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१९ १०. मुनिसुव्रतस्वामी के प्रस्तुत कृति में तथा सप्ततिशत स्थानक ग्रंथ में ९ भव
प्राप्त होते हैं। त्रिषष्टि में अंतिम तीन भव ही दर्शाये गये हैं और उन तीन भवों में पहले भव का नाम सुरश्रेष्ठ राजा है। प्रस्तुत कृति में श्रीवर्मा नाम है। त्रिषष्टि में अंतिम तीन भवों में से दूसरा भव प्राणत देव का है, प्रस्तुत कृति व
चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में अपराजित अनुत्तर का दिया है। ११. इकवीसवें नमिनाथ भगवान का दूसरा भव त्रिषष्टि व चतुर्विंशति
जिनभवोत्कीर्तनस्तवन में अपराजित अनुत्तर का है। प्रस्तुत कृति में प्राणत
देवलोक का दिया है। १२. पार्श्वनाथ के पहले भव का नाम त्रिषष्टि व चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में
मरुभूति है। प्रस्तुत कृति में अमरभूति है। १३. भगवान महावीर के भवों में मरीचि के बाद देवलोक व उसके बाद त्रिदंडी का
भव बताकर स्त्रिदण्डी तथा षट्वारं१० तथैव दानवरिपु१६ प१७' इस प्रकार उल्लेख किया गया है।
प्रत में दिये गये अंकों के आधार पर १७वाँ भव राजा (विश्वभूति) का आ रहा है। श्रीकल्पसूत्र व त्रिषष्टि अनुसार यह भव १६वे क्रम पर आना चाहिए। प्रस्तुत कृति में २२वाँ भव मनुष्य का न दर्शाते हुए उसी क्रम पर चक्रवर्ती वाला भव दर्शा दिया गया है और २७ भव पुरे कर दिये गये हैं। ६-६ वाली गिनती के विषय में मतान्तर है। कुछ विद्वान ब्राह्मण और देव के ६-६ भव मानते हैं तथा कुछ विद्वान ब्राह्मण के ६ और देव के ५ मानते हैं। इस प्रकार १ भव का अंतर पडने पर विश्वभूति का भव १६ व १७ क्रमांक पर आ जाता है। सिंह के बाद वाले नारकी के भव के बाद मनुष्य का भव कम-ज्यादा होने पर अंतमें भवसंख्या २७ हो जाती है। चतुर्विंशतिजिनभवोत्कीर्तनस्तवन में भी ऐसी ही गिनती है। ६-६ भव ब्राह्मण व देव के दर्शा दिये और एक मनुष्य वाला कम कर दिया, ऐसे करके २७ की गिनती पूर्ण की गई है। (१नयसार, २सौधर्म देवलोक, ३मरीचि, ४पंचम कल्पे देव, इसके बाद ६ ब्राह्मण व ६ देव की बात आती है। कौशिक, पुष्पमित्र, अग्निद्योत, अग्निभूति, भारद्वाज और स्थावर । यह ६ भव ब्राह्मण के हुए उनमें से पहले वाले दो ब्राह्मण प्रथम स्वर्ग में गए और उसके बाद वाले क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे व पाँचवे स्वर्ग में गए। तत्पश्चात् क्षुल्लक भवभ्रमण की बात है, फिर अन्य भव है।)
प्रसंगोचित २४ जिनेश्वरों के भवों का कोष्ठक यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। इस
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