Book Title: Shrutsagar 2019 11 Volume 06 Issue 06
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 33 SHRUTSAGAR November-2019 चौदह व्यधिकरण । उत्तरपक्षव्याप्ति का समावेश सिद्धान्तलक्षण में किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के इन दो भागों में व्यधिकरण के चौदह में से प्रथम दो लक्षण, जिसकी रचना दीधितिकार ने स्वयं की है, उसका विवरण किया गया है। प्रथम लक्षण में हेतु के साथ अभाव के समानाधिकरण्य को लेकर लक्षण बनाया गया है, जबकि दुसरे लक्षण में हेतुतावच्छेदकावच्छिन्न के साथ अभाव के समानाधिकरण्य को लेकर लक्षण बनाया गया है। इस ग्रन्थ की दोनों टीकाओं, जागदीशी और गादाधरी का उपयोग अधिकांशतः किया जाता है। जगदीश तर्कालंकार स्पष्ट, सचोट और तर्कपूर्ण निरूपण करते हैं, जबकि गदाधर भट्टाचार्य गहराईपूर्वक मूलगामी पदार्थ का निरूपण करते हैं। दोनों विद्वान अत्यन्त आदरणीय और तार्किक हैं। परन्तु वर्तमान जीवों के क्षयोपशम को ध्यान में रखते हुए गदाधर भट्टाचार्य अधिक उपयोगी होने के कारण उनकी टीका का ही विवरण ताताचार्यजी की टीका के आधार पर किया गया है। इस ग्रन्थ में संग्रहित सभी चौदह लक्षण अलग-अलग विद्वानों द्वारा रचे गए हैं, उनमें से यहाँ दीधितिकार के दो लक्षण, चक्रवर्ती का एक लक्षण, प्रगल्भ के दो लक्षण, विशारद का एक लक्षण मिश्र के तीन लक्षण, सार्वभौम का एक लक्षण, उसके आक्षेप से दीधितिकार का एक लक्षण तथा सार्वभौम का एक पुच्छलक्षण इस प्रकार कुल चौदह लक्षणों का निरूपण किया जाएगा। आचार्य विजयपुण्यकीर्तिसूरिजी के शिष्य मुनि श्री पद्मकीर्तिविजयजी गणिवर ने अभ्यासियों की सुविधा के लिए प्रथम भाग में प्रथम लक्षण का और द्वितीय भाग में प्रथम लक्षण का विवरण पूर्ण करते हुए द्वितीय लक्षण का सुगम्य विवरण गुजराती भाषा में किया है। गुजराती भाषा में विवरण होने के कारण यह ग्रन्थ जैन न्याय के अभ्यासियों तथा विद्वानों के लिए बहूपयोगी सिद्ध होगा। वस्तुतः न्याय एक परिष्कृत दर्शनशैली है । दर्शन की परिभाषा का उपयोग करने के लिए प्रत्येक दर्शनकार को इसकी आवश्यकता पड़ती है। कारण कि उसके बिना पदार्थ का सचोट व तर्कयुक्त निरूपण सम्भव नहीं है। इसीलिए प्रत्येक दर्शनकार ने इस शैली को अपनाया, जिससे इसकी व्यापकता बढ़ती गई। इस ग्रन्थ का अभ्यास कर मुमुक्षुजन तर्कयुक्त बुद्धि की तीव्रता को प्राप्तकर आगमग्रन्थों का अनुशीलन कर स्वपर कल्याण करनेवाले बनेंगे, ऐसा विश्वास है। पूज्यश्रीजी की यह रचना प्रत्येक दर्शनकार के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति है। संघ, विद्वद्वर्ग व जिज्ञासु इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं। मुनिश्री का साहित्यसर्जन निरंतर जारी रहे, ऐसी शुभेच्छा है। पूज्य मुनिश्री के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन । For Private and Personal Use Only

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