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दौलतराम-कृत क्रियाकोष कंटक नहिं क्रोधादि से, चढ़ि जु रहे गिर मान । मुनिवर से जोधा नहीं, शस्त्र न शुकल समान ॥३ भाव समान न भेष है, भाव समान न सेव । भाव समान न लिंग है, भाव समान न देव ।।४ ममता-माया रहित सो, उत्तम और न भाव । सोइ शुद्ध कहिये महा, बजित सकल विभाव ॥५ कारण आतम ध्यान को, भगवत भक्ति समान ।
और नहीं संसार में, इह धारौ मतिमान ।।६।। विघन-हरण मंगल-करन, जप सम और न जानि । जप नहिं अजप जाप सौ, इह श्रद्धा उर आनि ।।७ कारण रागविरोध को, भाव अशुद्ध जिसी न । कारण समताभाव को, विरक्ति भाव तिसौ न ।।८ कारण भव वन-भ्रमण के, नहिं रागादि समान । कारण शिवपुर गमन को, नहीं ज्ञान सो आन ॥९ सम्यग्दर्शन ज्ञान व्रत, ए रतनत्रय जानि । इनसे रतन न लोक में, ए शिव दायक मानि ॥१० निज अवलोकन दर्शना, निज जानें सो ज्ञान । निजस्वरूप को आचरण, सो चारित्र निधान ॥११ निजगुण निश्चय रतन ये, कहे अभेद स्वरूप । व्यवहारे नव तत्व की, सरधा अविचल रूप ॥१२ तत्त्वारथ श्रद्धान सो, सम्यग्दर्शन जानि । नव पदारथ को जानिवौ, सम्यग्ज्ञान बखानि ॥१३ विषय कषाय व्यतीत जो, सो व्यवहार चरित्र । ए रतनत्रय भेद हैं, इनसे और न मित्र ॥१४ देव जिनेसुर गुरु जती, धर्म अहिंसारूप।। इह सम्यक् व्यवहार है, निश्चय निज चिद्रूप ।।१५ नहिं निश्चय व्यवहार सी, सरधा जग में कोइ। ज्ञान भक्ति दातार ए, जिन भाषित नय दोइ ।।१६ भक्ति न भगवत भक्ति सी, नहिं आतम सो बोध । रोध न चित्त निरोध सो, दुरनयसो न विरोध ॥१७ दुर्मतिसी नहिं शाकिनी, हरै ज्ञान सो प्रान । नमोकार सो मंत्र नहिं, दूरमति हरे निधान ।।१८ नहिं समाधि निरूपाधि सी, नहिं तृष्णा सी व्याधि । तन्त्र न परम समाधि सो, हरै सकल असमाधि ॥१९ भवयन्त्र ज भयदाय को ता सम विघन न कोय । सिद्धयन्त्र सो सिद्धकर, और न जग में होय ॥२९
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