Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 407
________________ ३८. श्रावकाचार-संग्रह अब तो धन कछु नाहि, पास हमारे दानकों। किस विधि दान कराहिं, इन मनमें धरि कृपण द्वै ॥५९ यो न विचारे मूढ, शक्ति प्रमाणे त्याग है। होय धर्म आरूढ़, करे दान जिनवैन सुनि ॥६० कछु हू नाहिं जुरै जु, तोहू रोटी एक ही। ज्ञानी दान करै जु, दान विना घृग जनम है ॥६१ रोटी एक हु माहिं, तोहू रोटी आध हो । जिनमारगके माहि, दान बिना भोजन नहीं ॥६२ एक ग्रास ही मात्र, देवै अतिहि अशक जो। अर्घ ग्रासही मात्र, देव, परि नहि कृपण है ॥६३ गेह मसान समान, भाष किरपणको श्रुति । मृतक समान बखान, जीवत ही क पणा नरा ॥६४ जानो गृद्ध समान, ताके सुत दारादिका। जो नहिं करै सुदान, ताको धन आमिष समा ॥६५ जैसे आमिष खाय, गिरध मसाणा मृतकको । तैसे धन विनशाहिं, कृपणतनों सुत-दारका ।।६६ सबकों देनौ दान, नाकारौ नहिं कोइसू । करुणाभाव प्रधान, सब ही आतमराम हैं ॥६७ सब ही प्राणिनकों जु, अन्न वस्त्र जल औषधी । सूखे तण विधिसों जु, देनें तिरजंचानिकों ॥६८ गुनी देखि अति भक्ति, भावथकी देनी महा। दान भुक्ति अरु मुक्ति, कारण मूल कहें गुरु ॥६९ पर परिणतिको त्याग, ता सम आन न दान कोउ । देहादिकको राग, त्यागें ते दाता बड़े ॥७० कह्यो दान परभाव, अब सुनि जलगालण विधी । छांडो मुगध स्वभाव, जलगालण विधि आदरो ॥७१ जलगालण विधि । अडिल्ल छन्द अब जल गालन रीति सुनौ बुध कान दे, जीव असंखिनिको हि प्राणको दान दे। जो जल बरते छांणि सोहि किरिया धनी, जलगालणकी रीति धर्ममें मुख भनी ।।७२ नूतन गाढ़ी वस्त्र गुड़ी बिनु जो भया, ताको गलनो करै चित्त धरिके दया । डेढ़ हाथ लम्बो जु हाथ चौरो गहै, ताहि दुपड़तो करै छांणि जल सुख लहै ॥७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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