Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 371
________________ श्रावकाचार-संग्रह व्रतपरिसंख्या तप लहें;जे मुनिराय महत। श्रावक हू इह तप करें, कौन रीति सुन संत ॥७७ प्रातहिं संध्या विधि करें, धारहिं सतरा नेम । तासम कबहुं व्रत करें, परिसंख्यासों प्रेम ॥७८ धारि गुप्ति चितवै सुधी, अपने चित्त मॅझारि । साखि जिनेश्वर देव हैं, ज्ञायक ज्ञेय अपार ॥७९ और न जाने बात इह, जो धारें बुध नेम । नहीं प्रेम भव-भावसों, जप तप व्रतसों प्रेम ।।८० अनायास भोजन समय, मिलि हैं मोहि कदापि । रूखी रोटी मूगकी, लेहूँ और न क्वापि ॥८१ इत्यादिक जे अटपटी, धरै प्रतिज्ञा धीर। व्रतपरिसंख्या व्रत लहे, ते श्रावक गंभोर ।।८२ अब सुनि चौथा तप महा, रस परित्याग प्रवीन । मुनि श्रावक दोऊनिकों, भाषे आतमलीन ।।८३ अति दुखको सागर जगत, तामें सुख नहिं लेश । चहुंगति भ्रमण जु कब मिटे, कटै कलंक अशेष ||८४ जगके झूठे रस सबै, एक सरस अतिसार । इहै धारना धर सुधा, होइ महा अविकार ।।८५ भवत अति भयभीत जो, डर्यो भ्रमणतें धीर । निर्वानी निर्वान जो, चाखें निजरस वीर ॥८६ विषहूतें अति विषम जे, विषया दुख की खानि । भव-भव मोकू दुख दियौ, सुख परिणतिको मानि ॥८७ तातें इनकों त्याग करि, धरौं ज्ञानकों मित्र । तप जो भव आतप हरै, करण पुनीत पवित्र ॥८८ इह चितवतो धीर जो, रसपरित्याग करेय । नीरस भोजन लेयके, ध्यावै आतम ध्येय ||८९ दूध दही घृत तेल अर, मीठो लवण इत्यादि । रस तजि नीरस अन्न ले, काटै कर्म अनादि ॥९० अथवा मिष्ट कषायलो, खारो खाटो जानि । कड़वो और जु चिरपरौ, यह षटरस परवानि ॥९१ तजि रस नीरस जो भखै, सो आतम-रस पाय । देय जलांजलि भ्रमणकों, सूधो शिवपुर जाय ॥९२ भव बाकी ह्वे जो भया, तो पावै सुर-लोक । सुरथी नर 8 मुनिदशा, धारि लहै शिव-थोक ॥९३ अथवा सिंगारादिका, नव रस जगत विख्यात । तिनमें शांति सुरस गहै, जो सब रसको तात ।।९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420