Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 379
________________ ३५२ श्रावकाचार-संग्रह रौद्रध्यानके लक्षण एई, त्यागें धन्य धन्य हैं तेई। आरति रुद्र ध्यान ए खोटा, इनकरि उपजे पाप जु मोटा ॥२० दुखके मूल सुखनिके खोवा, ए पापी हैं जगत डबोवा । चउ आरतिके पाये भाई, तिर्यग्गतिकारण दुखदाई ॥२१ रौद्रध्यानके चार ए पाये, अधोलोकके दायक गाये। अशुभध्यान ये दोय विरूपा, लगे जीवके विकलप रूपा ॥२२ नरक निगोद प्रदायक तेई, वसे मिथ्यात धरामें एई। कबहुं कदाचित अणुव्रत ताई, काहूके रौद्र जु उपजाई ॥२३ महावृत्तलों आरतध्याना, कबहुँक छट्टे परमित थाना । काइके उपजें त्रय पाये, सप्तम ठाणे सर्व नसाये ॥२४ भोगारति उपजे नहिं भाई, जो उपजै तो मुनि न कहाई । अब सुन धर्मध्यानकी बातें, जे सह पाप पंथकों घातें ॥२५ धर्म जु स्वते स्वभाव कहावै, पण्डितजन तासों लब लावै । क्षमा बादि दशलक्षण धर्मा, जीवदया बिनु कटइ न कर्मा ॥२६ इत्यादिक जिन-भाषित जेई, धारै धर्म धीर हैं तेई। धर्मविर्षे एकाग्र सुचित्ता, विषय-भोगसे अतिहि विरत्ता ॥२७ जे वैराग्यपरायण ज्ञानी, धर्मध्यानके होंहिं सु ध्यानो। जो विशुद्धभावनिमें लागा, जिनर्ते रागदोष सहु भागा ।।२८ एक अवस्था अंतर बाहिर, निरविकल्प निज निधिके माहिर । घ्यावे आतमभाव सुधीरा, है एकाग्रमना वर वीरा ॥२९ जे निजरूपा है समभावा, ममत वितीता जग निरदावा । इन्द्री जोति भये जु जितिन्द्री, तिनकों ध्यानी कहें अतिन्द्री ॥३० चितवन्ता चेतन गुण-धामा, ध्यानहिं लीना आतमरामा । निरमोहा निरदुन्द सदा हो, चितमें कालिम नाहिं कदा ही ॥३१ जेहि अनुभवें निज चितधनकों, रोक मनकों सौखें तनकों। आनन्दी निज ज्ञानस्वरूपा, तिनके धर्म रु ध्यान निरूपा ॥३२ मैत्री मुदिता करुणा भाई, बर मध्यस्थ महासुखदाई। एहि भावना भाव जोई, धर्मध्यानको ध्याता सोई॥३३ सर्वजीवसों मैत्रीभावा, गुणी देखि चितमें हरषावा । दुखो देखि करुणा उर आने, लखि विपरीत राग नहिं ठाने ॥३४ द्वष जु नाहिं धरै जु महन्ता, है मध्यस्थ महा गुणवन्ता । बहुरि धर्मके चारि जु पाया, ते सम्यकदृष्टिनिकों भाया॥३५ आज्ञाविचय कहावै जोई, श्रोजिनवरने भाष्यो सोई । ताकी दृढ़ परतीति करै जो, संशय विभ्रम मोह हरै जो ॥३६ कर्म नाशको उद्यम ठान, रागद्वेषको परणति भान । सो अपायविचयो है दूजौ, तिरै जगतथी धारै तू जौ ॥३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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