Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 378
________________ ३५१ दौलतराम-कृत क्रियाकोष लहि निज ज्ञान भयो अति पुष्टा, जाहि न धेरै विकलप दुष्टा। सो कायोत्सर्ग तपधारी, पावै शिवपुर आनन्दकारी ॥२ मुनिके यह तप पूरण होई, श्रावकके किंचित तप जोई। श्रावक हू नहिं देह-सनेही, जानो आतम तत्त्व विदेहो ॥३ मरणतनों भय तिनके नाही, ते कायोत्सर्ग तपमाहीं। अब सुनि बारम तप है ध्याना, जा परसाद लहे निज ज्ञाना ॥४ अन्तर एक मुहूरत काला, है एकाग्रचित्त व्रत पाला। ताको नाम ध्यान है भाई, च्यारि भेद भाषै जिनराई ॥५ द्वै प्रशस्त द्वै निंद्य बखान, श्रुत अनुसार मुनिनने जाने । आरति रौद्र अशुभ ए दोई, धर्म सुकल अति उत्तम होई ॥६ आरति तीब्र कषायें होई; महा तीव्रतें रौद्र ज सोई। मन्द कषायें धर्म सु ध्याना, जाहि न पावै जीव अज्ञाना ||७ धर्मध्यानतें सुकल सु ध्यान, सुकलध्यान केवल ज्ञान । रहित कषाय सुकल है सूधा, जा सम और न ध्यान प्रबूधा ।।८ चार ध्यान ए भा भाई, तिनके सोला भेद कहाई। ते तुम सुनहु चित्त धरि मित्रा, त्यागी आरति संद्र विचित्रा ।।९ आरतिके चउ भेद जु खोटे, पशुगति दायक औगुण मोटे । इष्टवियोग अनिष्टसंजोगा, पीरा चिंतन होई अजोगा॥१० चौथो बंधनिदान कहावै, जो जीवनिको भव भरमावै । वस्तु मनोहरको जु वियोगा, होय तबै धारै शठ सोगा ॥११ इष्ट वियागारत सो जानों, दुःखतरुवरको मूल बखानों। दूजो भेद अनिष्ट संजोगा, ताको भाव सुनो भविलोगा ॥१२ वस्तु अनिष्ट मिलै जब आई, शोच करै तब भोंदू भाई। भववनमें भरमैं शठमति सो, पाप बांधि पावै दुरगति सो ॥१३ रोगनिकरि पीडया अति शठजन, आरति धार जो अपने मन । सो पीरा-चितवन है तीजौ, आरतध्यान सदा तजि दीजो ॥१४ चौथौ आरति त्यागौ भाई, बंधनिदान महा दुखदाई। . जप तप व्रत करि चाहै भोगा, ते जगमाहिं महाशठ लोगा ॥१५ ए चारों आरति दुखदाई, भव-कारण भार्षे जिनराई। रौद्रध्यानके चारि विभेदा, अब सुनि जे दायक अतिखेदा १६ हिंसाकरि आनन्द जु माने, हिंसानन्दी धर्म न जाने । ' मृषावाद करि धरै अनंदा, मृषानन्द सो जियको फन्दा ॥१७ चोरीतें आनंद उपजावै, सो अघ चौर्यानन्द कहावै। परिग्रह बढ़े होय आनन्दा, सो जानों जु परिग्रहानन्दा ॥१८ ए चउ भेद हरें सुख साता, दुरमतिरूप उग्र दुखदाता । पर विभूतिकी घटतौ चाहें, अपनी संपत्ति देखि उमाहे ॥१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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