Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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३६४
श्रावकाचार-संग्रह सम्यकके गुण अतुल हैं, श्रावक तिरि नर होय । मुनिव्रत मनुजहि धारहीं, द्विज छत वाणिज होय ॥३ संवेगो निरवेद अर, निंदन गहा जानि । समता भक्ति दयालुता, बात्सल्यादिक मानि ।।४ धर्म जिनेसुर कथित जो, जीवदयामय सार । तासौं अधिक सनेह है, सो संवेग विचार ॥५ भव तन भोग समस्ततें, विरकत भाव अखेद । सो दूजो निरवेद गुण, करै कर्मको छेद ॥६ तीजी निंदन गुण कह्यो, निजकों निंदै जोइ । मनमैं पछितावो करें, भव भरमणको सोइ ।।७ चौथौ गरहा गुन महा, गुरुपै भाषै वीर । अपने औगुन समकिती, नहीं छिपावै धीर ।।८ पंचम उपशम गुण महा, उपशमता अधिकाय । प्राण हरे वाहू थकी, बैर न चित्त धराय ॥९ छट्टो गुण भक्ती धरै, सम्यकदृष्टी संत । पंच परमपदकी महा, धारै सेव महंत ॥१० सप्तम गुण वात्सल्य जो, जिन धमिनिसों राग। अष्टम अनुकंपा गुणो, जीवदया व्रत लाग ।।११
उक्तं च गाथासंवेओ णिव्वेओ, जिंदण गरुहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा, अट्ट गुणा हुंति सम्मत्ते ॥१२
चौपाई
भव्यजीव चहुँगतिके माहीं, पा समकित संशय नाहीं । पंचेन्द्री सैनी बिनु कोय, और न सम्यकदृष्टी होय ॥१३ जब संसार अलप ही रहै, तब सम्यक दरशनकों गहै। प्रथम चौकरी तीन मिथ्यात, ए सातों प्रकृती विख्यात ॥१४ इनके उपशमतें जो होय, उपशम नाम कहावै सोय।। इनके क्षयते क्षायिक नाम, पावै मनुष महागुण धाम ॥१५ क्षायिक मनुष बिना नहिं लहै, क्षायिक तुरत ही भव-वन दहै। केवल आदि मूल इह होय, क्षायिक सो नहिं सम्यक कोय ॥१६ अब सुनि क्षय-उपसमको रूप, तीन प्रकार कह्यो जिनभूप । प्रथम चौकरी क्षय है जहां, तोन मिथ्यात उपसमें तहां ॥१७ पहलो क्षय-उपशम सो जानि, जिनवानी उरमैं परवानि । प्रथम चौकरी पहल मिथ्यात, ए पांचों क्षय ह्वे दुखदात ॥१८
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