Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 380
________________ ४५ दौलतराम-कृत क्रियाकोष करे उपाय शुद्ध भावनिको, अर निरवाणपुरी पावनिको । तीजी नाम विपाकविचय है, भव-भावनितं भिन्न रहे हैं ॥ ३८ शुभ उदय संपदा आवे, अशुभ उदय आपद बहु पावें । दोऊ जाने तुल्य सदाही, हर्ष विषाद धरै न कदा ही ॥ ३९ पुनि संठाणविचय है चौथो, सर्व जगतकों जानें थोथौ । तीन लोकको जानि सरूपा, जिनमारग अनुसार अनूपा ॥४० सबको भूषण चेतनराया, चेतनसों नहिं दूजी भाया । सर्व लोक छांड़िजु प्रीती, चेतनकी धारै परतीतो ॥४१ चेतन भावनिमें लौ लाव, अपनों रूप आपमें ध्याव । ए हैं धरमध्यानके भेदा, सुकल-प्रदायक पाप-उछेदा ॥४२ चौथे गुण ठाणें होइ धर्मा, संपूरण गुण ठाणें परमा । धर्मध्यानके चउ गुणठाणा, ते देवाधिदेवने जाणा ॥४३ अहमिन्द्रादिक पद फल ताकी, वरणे जाहि न अति गुण जाको । कारण सुकल ध्यानको एही, धर्मध्यानतें सुकल जु लेही ॥४४ मुनि श्रावक दोऊके गाया, धर्मध्यान सो नहीं उपाया । मुनिको पूरणरूप प्रवानों, श्रावकके कछु नून बखानों ॥ ४५ मुनि अति ही निश्चलताई, श्रावकके किंचित थिरताई । परिग्रह चंचलताको मूला, जातें धर्म न होय सथूला ||४६ पै तृष्णा छांड़ी बहुतेरी, करि मरजादा परिग्रहकेरी । तात धर्मध्यानके पात्रा, श्रावक हू जाणों गुणगात्रा ॥ ४७ धर्मध्यानके च्यारि स्वरूपा, और हु श्रीगुरु कहे अनूपा । इक पिंडस्थ पदस्थ द्वितीया, रूपस्था तीजौ गनि लीया ॥४८ रुपातीत चतुर्थम भेदा, हद्द धर्मकी पाप उछेदा । इनके भेद सुनौ मन लाये, जाकरि सुकलध्यानकूं पाये ॥४९ fusमाहिं सब लोक विभूती, चितवे ज्ञानी निज अनुभूती । पिंडलोकको राजा चेतन, जाहि स्पर्श सकै न अचेतन ॥५० ताको ध्यान करे जो ध्यानी, सो होवे केवल निज ज्ञानी । बहुरि पदस्थ ध्यान बुघ धारे, जिनभाषित पद मन्त्र विचारं ॥ ५१ पंच परमगुरुमंत्र अनादी, ध्यावै धीर त्याग क्रोधादी । नमोकारके अक्षर भाई, पें तीसौ पूरण सुख दाई ॥५२ षोड़श अक्षर मंत्र महंता, पंच परमगुरु नाम कहन्ता । मन्त्र षड़ाक्षर अ र हं त सिद्धा, असि आ उ सा पंच प्रबुद्धा ||५३ नमोकारके पैतिस अक्षर, प्रसिद्ध छे अरु षोड़स अक्षर । अरहंत सिध आयरिय उवझाया, साहू जपेंते अंक गिनाया ॥५४ चउ अक्षर म र हं त जपौ जू, सिद्ध नाम उरमाहि थपी जू । अक्षर भूलो मति भाई, सिद्ध-सिद्ध यह जाप कराई ॥५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५३ www.jainelibrary.org

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