Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 385
________________ ३५८ श्रावकाचार-संग्रह ध्यान तनूं विस्तार, कहि न सके गणधर मुनी। कैसे पावें पार, हमसे अलपमतो भया ।।२५ तप जप ध्यान निमित्त, ध्यान समान न दूसरो। ध्यान धरौ निज चित्त, जाकरि भवसागर तिरौ ॥२६ तपकू हमरी ढोक, जामें ध्यान जु पाइये । मेटै जगको शोक करै कर्मको निर्जरा ॥२७ अनशन आदि पवित्र, ध्यान लगै तप गाइया। बारा भेद विचित्र, सुनों अबै समभाव जो ॥२८ इति द्वादश तप निरूपणम् । अथ सम भाव वर्णन छप्पय चाल राग द्वेष अर मोह, एहि रोके समभावें। जिनकरि जगके जीव, नाहिं शिवथानक पावै । तेरा प्रकृति राग, द्वेषकी बारा जानो। मोहतनी हैं तीन, ए अट्ठाईस बखानों ।। एक मोहके भेट दो, दर्शन चारित्र ए। दर्शन मोह मिथ्यात भव, जहां न सम्यक सोहए ॥२९ राग द्वेष ए दोय. जानि चारित्र जु मोहा । इनकरि तप नहीं व्रत, एह पापो पर द्रोहा॥ इनकी प्रकृति पचीस, तेहि तजि आतमरामा। छांडो तीन मिथ्यात, यही दोषनिके धामा । स्वपर विवेक विचार विना, धर्म अधर्म न जो लखै। सो मिथ्यात अनादि प्रथम, ताहि त्यागि निजरस चलें ॥३० दूजो मिश्र मिथ्यात, होय तीजे गुण ठाणे । जहां न एक स्वभाव, शुद्ध आतम नहिं जाणे ॥ सत्य असत्य प्रतीति, होय दुविधामय भावें। ताहि त्यागि गुणखानि, शुद्ध निजभाव लखावै ॥ तीजी सम्यक् प्रकृति मिथ्यात, समकितमैं उदवेग कर । भलो दोयतें तीसरौ, तो पन चंचलभाव धर ॥३१ बोहा कहे तीन मिथ्यात ए, दरशन मोह विकार । अब चारित्र जु मोहको, भेद सुनौ निरधार ॥३२ कही कषाय जु षोडसो, नो-कषाय नव मेलि । ए पच्चीसों जानिये, राग द्वेषकी वेलि ॥३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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