Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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श्रावकाचार-संग्रह
मन्त्र इकाक्षर है ओंकारा, ब्रह्मबीज इह प्रणव अपारा । पंच परमपद या अक्षरमें, याहि ध्याय जगमैं नहिं भरमैं ||५६ शुक्लरूप अति उज्जल सजला, ध्यावै प्रणवातें हैं विमला । सोऽहं सोऽहं अजपाजापा, हरे सन्तके सब सन्तापा ॥५७ इह सुर सबही प्राणीगणके, होवै श्वास उश्वास सबनिके ।
हियाको भेदजु पावे, तातै भोंदू भव भरमावै ॥५८ जो यह नाद सुनें बरवीरा, पावै शुक्लध्यान गुणधीरा । उज्जलरूप दाय ए अंका, ध्यावै सो नासै अघ-पंका || ५९ जिनवर सोनहि देव जु कोई, अजपा सो नहिं जाप सु होई । . मन्त्र अनेक जिनागम गाये, ते ध्यानी पुरुषनिने ध्याये ॥ ६० सबमें पंच परम गुरु नामा, पंच इष्ट बिन मंत्र निकामा । मन्त्राक्षरमाला जो ध्यावै, नाम पदस्थ ध्यान सो पावै ॥ ६१ अब सुनि तीज भेद सु भाई, है रूपस्थ महासुखदाई । कृत्रिम और अकृत्रिम मूरति जिनवरको ध्यावै शुभ सूरति ॥६२ जिनवरकी साकार स्वरूपा, तेरम गुणठाणें जु अनूपा । अतिशय प्रातिहार्यधर स्वामी, धरै अनंत चतुष्टय नामी ||६३ समवसरण शोभित जिनदेवा, ताहि चितारै उर धरि सेवा । पुनि तजि रूप रंग गुणवाना, ध्याव े चौथो भेद सुजाना ॥ ६४ रूपातीत समान न कोई, धर्मध्यानको भेद जु होई । ध्याव सिद्धरूप अतिशुद्धा, निराकार निरलेप प्रबुद्धा ॥६५ पुरुषाकार अरूप गुसांई, निरविकार निरदूषण सांई । वसु गुण आदि अनंत गुणाकर अवगुण रहित अनंत प्रभाधर ||६६ लोकशिखर परमेसुर राजे, केवलरूप अनूप विराजै । जिनकों उर-अन्तर जे ध्याव, रूपातीत ध्यान ते पाव ॥ ६७ सिद्ध समान आपकों देखे, निश्चयनय कछु भेद न पेखै । व्यवहारे प्रभु हम दासा निश्चय शुद्ध बुद्ध अविनाशा ॥६८ ए चारू ध्याव जो धर्मा, ते हि पिछाने श्रुतको मर्मा । धर्मध्यान चहुं गतिमैं होई, सम्यक बिन पाव नहिं कोई ॥६९ छट्टम सप्तम मुनिके ठाणा, पंचम ठाणें श्रावक जाणा । चौथे अवत सम्यकज्ञानी, तेऊ धर्मध्यानके ध्यानी ॥७० चौथेसों ते सप्तमताई, धर्मध्यानकों कहैं गुसांई । धर्मध्यान परभाव सुज्ञानी, नासै दस प्रकृती निजध्यानी ॥ ७१ प्रथम चौकरी तीन मिथ्याता, सुर नारक अर आयु बिख्याता । अष्टमसों चौदमलों सुकला, सुकल समान न कोई विमला ॥७२ शुकलध्यान मुनिराज हि ध्यावै, शुकलकरी केवलपद पावें । शुकल नसावें प्रकृति समस्ता, करें शुकल रागादि विध्वस्ता ||७३
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