Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 369
________________ श्रावकाचार-संग्रह इन्द्रिनिकों उपशांत करि, करै चित्तको रोध। ते उपवासे उत्तमा, लहें आपको बोध ॥४१ गनि उपवासे ते नरा, मन इन्द्रिनिकों जीति । करें वास चेतनविष, शुद्धभावसों प्रीति ।।४२ इस भव परभव भोगकी, तजि आशा ते धीर । करम-निर्जरा कारणे. करें उपास सु वीर ||४३ आतम ध्यान धरै बुधा, के जिन श्रुत अभ्यास । तब अनसनको फल लहै, केवल तत्त्व अध्यास ॥४४ चऊ अहार विकथा चक, तजिवो चारि कषाय । इन्द्री विषया त्यागिवी, सो उपवास कहाय ॥४५ द्वै विधि अनसनकी कहैं, महामुनी श्रुतिमाहिं । सावधि निरवधि गुण धरी, जाकरि कर्म नशाहिं ॥४६ एक दिवस द्वै तीन दिन, च्यारि पांच पखवार । मासा द्वय त्रय च्यारि हू, मास छमास विचार ॥४७ वर्षावधि उपवास करि, करै पारनों जोहि । सावधि अनसन तप भया, भाषे श्री गुरु सोहि ॥४८ आयु-कर्म थोरी रहै, तब ज्ञानी व्रत धीर । जावौजीव तर्जे सबै, असन पान जगवीर ॥४९ मरणावधि अनसन करें, सो निरवधि उपवास । जे धारै उपवासकों, ते जु करें अघ नाश ॥५० करते थके उपासकों, जे न तजै आरम्भ । जग धंधे में चित धरै, तजें न शठमति दंभ ॥५१ मोहगहल चंचल दशा, लहै न फल उपवास । कछुयक काय-कलेशका, फल पावै जगवास ॥५२ कम-निर्जरा फल सही, सो नहिं तिनकों होइ। इह निश्चय सतगुरु कहें, धार, बुधजन सोइ ॥५३ धन्य धन्य उपवास हैं, देइ सासतो वास । अब सुनि अवमोदर्य जो, दूजौ तप सुखरास ।।५४ जो मुनि करै अनोदरी, तजि अहारकी वृद्धि । प्रासुक योग सु अलप अति, ले अहार तप-बृद्धि ।।५५ कर सु अवमौदर्यकों, करै निर्जरा हेत। नहिं कीरतिको लोभ है, सो मुनिजिन पद लेत ॥५६ श्रावक होइ जु व्रत कर, लेइ अलप आहार । जब स्वाध्याय सु ध्यान है, मिटें अनेक विकार ॥५७ संध्या पोसह पडिकमण, तासों सधै अदोष । जो अहार बहुत न करे, धरै महागुण कोष ॥५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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