Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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३२५
दौलतराम-कृत क्रियाकोष आवै जु बुलायें जीवा, जिनको नहिं माया छीवा । है दशमीतें कछु नूना, परिकीय कर्म अघ चूना ॥५१ एतौ ही अन्तर उनतें, कबहुँक लौकिक बच जनतें। बोलें परि विरकतभावा, धनको नहिं लेश धरावा ॥५२ आतेको आरुकारा, जाते सो हल भल धारा। दसमीते अतिहि उदासा, नहिं लोकिक वचन प्रकाशा ॥५३ सप्तम अष्टम अर नवमा, ए मध्य सरावग पडिमा । मध्यनिमें मध्य ज पात्रा. व्रत शील ज्ञान गण गात्रा ॥५४ अथवा हो श्राविका शुद्धा, व्रत धारक शील प्रबृद्धा । जो ब्रह्मचारिणी बाला, आजनम शील गुण माला ॥५५ सो मध्यम पात्रा मध्या, जानों व्रस शौल अवध्या। अथवा निजपतिको त्यागै, सो ब्रह्मचर्य अनुरागै ॥५६ सो परम श्राविका भाई, मध्यनिमें मध्य कहाई । इनको जो देय अहारा, सो ह्व भवसागर पारा ॥५७
बोहा अन्न वस्त्र जल औषधी, पुस्तक उपकरणादि । थान ज्ञान दान जु करें, ते भव तिरें अनादि ।।५८ हरें सकल उपसर्ग जे, ते निरुपद्रव होंहिं। सुर-नर पति द्वै मोक्षमें, राजे अति सुखसों हि ॥५९
चालछन्द जो दशमी पडिमा धारा, श्रावक सु विवेकी चारा। जग धंधाको नहिं लेशा, नहिं धंधाको उपदेशा ॥६० वनमें हु रहै वर वोरा, ग्रामे हु रहै गुणधीरा। आवै श्रावक घरि जीवा, नहि कनकादिक कछु छींवा ॥६१ एकादशमीतें छोटे, परि और सकलतें मोटे । जिनवानी बिन नहिं बोलें, जे कितहूँ चित न डोलें ॥६२ मुनिवरके तुल्य महानर, दशमी एकादशमी धर । एकादशमी कै भेदा, एलिक छुल्लक अघछेदा ॥६३ इनसे नहिं श्रावक कोई, सबमें उत्तकृष्टे होई। त्यागी जिन जगत असारा, लाग्यो जिन रंग अपारा॥६४ पायो जिनराज सुधर्मा, छांड़े मिथ्यात अधर्मा। जिनके पंचम गुणठाणा, पूरणतारूप विधाना ॥६५ द्वय माहिं महंत जु ऐला, निश्चलता करि सुरशैला। जिनके परिग्रह कोपीना, अर कमण्डल पीछी तीना ॥६६
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