Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 5
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 344
________________ ३१७ दौलतरम्म-कृत क्रियाकोष सुचि संथारे रात्रि गुमावे, निद्राको लवलेश न आवे । के अपनों निजरूप चितारै, के जिनवर चरणा चित धारै ॥१३ कै जिनबिम्ब निरखई मनमें, भूल न ममता धरई तनमें। अथवा ओंकार अपारा, जपे निरन्तर धीरज धारा ॥१४ नमोकार ध्यावे वर मित्रा, भयो भर्मतें रहित स्वतन्त्रा। जग-विरक्त जिनमत आसक्तो, सकल-मित्र जिनपति अनुरक्तो॥१५ कर्म शुभाशुभको जु विपाका ताहि विचारै नाथ क्षमाका । निजकों जाने सवतें भिन्ना, गुण-गुणिकों माने जु अभिन्ना ।।१६ इम चितवनतें परम सुखी जो, भववासिन सो नाहिं दुखी जो। पंच परमपदको अति दासा, इन्द्रादिक पदतें हु उदासा ॥१७ रात्रि धारनाकी या विधिसों, पूरी कर भर्यो ब्रतनिधिसों। पुनि प्रभात संध्या करि वीरा, दिन उपवास ध्यान धरि धीरा ॥१८ पूरो करै धर्मसों जोई, संध्या कर सांझकों सोई। निशि उपवासतणी ब्रतधारी, पूरी करै ध्यानसों सारी ॥१९ करि प्रभात सामायिक सुबुधी, जाके घटमें रंच न कुबुधी, पारण दिवस करै जिनपूजा, प्रासुक द्रव्य और नहिं दूजा ॥२० अष्ट द्रव्य ले प्रासुक भाई, श्री जिनवरकी पूज रचाई। पात्र-दान करि दो पहरांजे, करै पारणू माप घरां जे ॥२१ ता दिन हू यह रीति बताई, ठौर अहार अल्प जल पाई। घारन पारन अर उपवासा, तीन दिवसलों बरत निवासा ॥२२ भमि-शयन शीलब्रत धार. मन वच तन करि तजैविकार। इह उतकृष्टी पोसह विधि है, या पोसह सम और न निधि है ॥२३ मध्य जु पोसह बारह पहरा, जपनि आठ पहरा गुण गहरा । अतीचार याके तजि पंचा, जाकरि छुटै सर्व प्रपंचा ॥२४ बिन देखी बिन पूंछे वस्तू, ताको प्रहिवौ नाहिं प्रशस्तू । ग्रहिवौ अतीचार पहलो है, ताको त्यागसु अति हि भलो है ॥२५ बिन देखे बिन पूछे भाई, संथारे नहिं शयन कराई। अतीचार छूटै तब दूजो, इह आज्ञा धरि जिनवर पूजो ॥२६ बिन देखो बिन पूछो जागा, मल मूत्रादि न कर बड़भागा। करिवी अतीचार है तीजो, सर्व पाप तजि पोसह लीजो ॥२७ पर्व दिनाको भूलन चौथो, अतीचार यह गुणतें चौथो। बहुरि अनादर पंचम दोषा पोसहको नहिं आदर पोषा ॥२८ ये पाँचो तजियां 8 पोषा, निरमल निश्चल अति निरदोषा। सामायिक पोषह जयवन्ता, जिनकर पइये श्रीभगवन्ता ॥२९ मुनि होनेको एहि अभ्यासा, इन सम और न कोइ अध्यासा । मुक्ति मुक्ति दायक ये ब्रता, धन्य धन्य जे करहिं प्रवृत्ता ॥३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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