Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 21 Sooryapragyapti Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
View full book text
________________
आगम
(१६)
सूत्रांक [१०० ]
+
गाथा:
अनुक्रम [१२९
-१९२]
“सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:)
प्राभृत [१९],
प्राभृतप्राभृत [-],
मूलं [१००] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
सूर्यमज्ञ
॥२७८॥
छावट्टिसहस्साई णव चेव सताई पंचसतराई । एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीनं ॥ ४० ॥ अंतो २१९ प्राभृते सिवृत्तिः ४ मणुस्खे से जे चंदिमसूरिया गहगणणक्खत्ततारावा ते णं देवा किं उद्घोववमा कप्पोववण्णा १२ चन्द्रवृक्षा ( मल० विमाणोववण्णगा चारोववण्णमा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा ?, ता ते णं देवा णो उद्घोववदिचन्द्रा पणगा नो कप्पोचवण्णगा विमाणोचवण्णगा चारोववण्णगा नो चारंठितीया गहरइया गतिसमावण्णगा ४१ दीनामूर्ध्व * त्पन्नत्व दि उद्धामुहकलंयु अपुष्फठाण संहितेहिं जोअणसाहस्सिएहिं तावक्खेतेहिं साहस्सिएहिं बाहिराहि यसू १०० याहिं परिसाहिं महताहतणहगीय वाइयतंतीतलता लतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं महता उकट्टिसीहणादकलकलरबेणं अच्छं पचतरायं पदाहिणावसमंडलचारं मेरुं अणुपरियइति, ता तेसि णं देवाणं जाधे इंदे अचयति से कथमिदाणिं पकरेंति ?, ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति जाब अण्णे इत्थ इंदे उबवण्णे भवति, ता इंदठाणे णं केयइएणं कालेणं विरहियं पन्नत्तं ?, ता जपणेण इकं समयं उकोसेणं छम्मासे, ता बहिता णं माणूस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगह जाव तारारूया ते णं देवा किं उडो| ववण्णमा कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णगा चारद्वितीया गतिरतीया गतिसमावण्णगा ?, ता ते णं देवा णो उहोचवण्णगा नो कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णगा जो चारोववण्णमा चारठितीया नो गइरहया णो गतिसमावण्णगा पहिगसंठाणसंठितेहिं जोपणसयसाहस्सिएहिं तावकखेत्तेहिं सयसाहस्सियाहिं पाहि| राहिं वेडवियाहिं परिसाहिं महताहत नहगीयवाहयजावरवेणं दिवाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरति,
For Penal Use Only
~566~
॥२७८॥

Page Navigation
1 ... 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610