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चौथा स्तबक
और तब प्रस्तुत वादी वस्तुओं के बीच कार्यकारणभाव को प्रत्यक्ष तथा अनुपलंभ के आधार पर स्थापित कैसे कर सकता है, क्योंकि अब तो उसके मतानुसार यह बात अनिश्चित ही बनी रहेगी कि अमुक वस्तु का जन्म दूसरी वस्तु से हो रहा है (अथवा यह कि उसका जन्म इस दूसरी वस्तु से अन्य किसी वस्तु से नहीं हो रहा है )
टिप्पणी- दो वस्तुओं के बीच कार्य-कारणभाव प्रत्यक्ष तथा अनुपलंभ की सहायता से जाना जाता है यह क्षणिकवादी का मत है । इस मत का भावार्थ यह है जब 'क' की उपस्थिति में 'ख' का प्रत्यक्ष होता है तथा 'क' की अनुपस्थिति में 'ख' का अनुपलंभ ( = दीख न पड़ना) तब हम कहते हैं कि 'क' 'ख' का कारण है । हरिभद्र की समझ है कि क्षणिकवादी को यह सब कहने का अधिकार तब तक प्राप्त नहीं जब तक वह इस संभावना को स्वीकार न करे कि एक ही ज्ञान दो वस्तुओं को (उक्त उदाहरण में 'क' तथा 'ख' को) अपना विषय बनाता है ।
न पूर्वमुत्तरं चेह तदन्याग्रहणाद् ध्रुवम् । गृह्यतेऽत इदं नातो न त्वतीन्द्रियदर्शनम् ॥ ३४५॥
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जब प्रस्तुत वादी की यह मान्यता है कि एक ज्ञान एक ही वस्तु का ग्रहण कर सकता है किसी दूसरी वस्तु का नहीं तब निश्चय ही किन्ही दो वस्तुओं के सम्बन्ध में वह यह नहीं कह सकता कि इनमें से यह पहले अस्तित्व में आई और वह बाद में; और नहीं किसी वस्तु के सम्बन्ध में वह यह कह सकता है कि इसका जन्म इस दूसरी वस्तु से हुआ है, न कि उस दूसरी वस्तु से । और जहाँ तक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का प्रश्न है उसका यहाँ प्रसंग ही नहीं (यद्यपि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा भूतकालीन तथा भविष्यत्कालीन वस्तुओं को अवश्य जाना जा सकता है) ।
टिप्पणी--क्षणिकवादी के मतानुसार दो वस्तुओं के कार्य-कारणसम्बन्ध या तो प्रत्यक्ष द्वारा जाना जाना चाहिए या विकल्प ( = चिन्तन) के द्वारा । प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र कह रहे हैं कि यह सम्बन्ध प्रत्यक्ष द्वारा नहीं जाना जा सकता क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय एक वर्तमान वस्तु होती है - एक भूतपूर्व अथवा आगामी वस्तु नहीं - जब कि कारणभूत वस्तु तथा कार्यभूत वस्तु के बीच पौर्वापर्य सम्बन्ध
१. ख का पाठ : नन्वती ।
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