Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 230
________________ दसवाँ स्तबक १९९ 'शबरों द्वारा रचित' यह भी हो सकता है—जहाँ 'शबर' से आशय किसी वनवासी जनसमुदायविशेष से है)। वेदेऽपि पठ्यते ह्येष महात्मा तत्र तत्र यत् । स च मानमतोऽप्यस्यासत्त्वं वक्तुं न युज्यते ॥६२४॥ फिर वेदों तक में ऐसे (अर्थात् सर्वज्ञ) महात्मा का उल्लेख यहाँ वहाँ आया है और वेद प्रस्तुत वादी की दृष्टि में प्रमाणभूत हैं; इसलिए भी प्रस्तुत वादी का सर्वज्ञ की सत्ता से इनकार करना युक्तिसंगत नहीं । । न चाप्यतीन्द्रियार्थत्वाज्ज्यायो विषयकल्पनम् । असाक्षाद्दर्शिनस्तत्र रूपेऽन्धस्येव सर्वथा ॥६२५॥ और क्योंकि वेदों की प्रतिपाद्य विषयवस्तु अतीन्द्रिय पदार्थ हैं इसलिए वेदार्थ के संबन्ध में मनमानी कल्पना करना उन व्यक्तियों के लिए कैसे भी उचित नहीं जिन्हें अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात् ज्ञान नहीं-उसी प्रकार जैसे एक अंधे का रूप के संबन्ध में मनमानी कल्पना करना उचित नहीं । सर्वज्ञेन ह्यभिव्यक्तात् सर्वार्थादागमात् परा । धर्माधर्मव्यवस्थेयं युज्यते नान्यतः क्वचित् ॥६२६॥ धर्म तथा अधर्म के संबन्ध में आदर्श कोटि का स्वरूप-निश्चय एक सर्वज्ञ व्यक्ति द्वारा अभिव्यक्त किए गए तथा सभी विषयों का निरूपण करनेवाले शास्त्र की सहायता से ही किया जा सकता है-अन्य किसी साधन की सहायता से नहीं । ____२. बौद्ध के सर्वज्ञताखंडन का खंडन अत्रापि प्राज्ञ इत्यन्य इत्थमाह सुभाषितम् । इष्टोऽयमर्थः शक्येत ज्ञातुं सोऽतिशयो यदि ॥६२७॥ इस सम्बन्ध में भी किसी दूसरे बुद्धिशाली ने सूक्ति बघारी है कि उपरोक्त सब बातें मानी जा सकती है यदि हमारे लिये यह जानना संभव हो कि अमुक व्यक्ति प्रस्तुत असाधारण विशेषता से (अर्थात् सर्वज्ञता से) सम्पन्न है । टिप्पणी—प्रस्तुत कारिका से हरिभद्र उन सर्वज्ञताविरोधी तर्को का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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