Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 239
________________ २०८ शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि) किसी अन्य पदार्थ की उपस्थिति मानने से क्या लाभ ? क्योंकि एक शब्द एक वस्तु की प्रतीति 'अन्य से भेद'वाली के रूप में कराता है। कहा जा सकता है कि एक वस्तु में 'अन्य से भेद' नाम वाले पदार्थ की उपस्थिति हुए बिना उसका ‘अन्य से भेद'वाली होना संभव नहीं, लेकिन इस पर हमारा पूछना है कि जब उक्त वस्तु में 'अन्य से भेद' नामवाले पदार्थ की प्रतीति एक भ्रान्त प्रतीति है तथा हमारी बात में (अर्थात् एक वस्तु में 'जाति' नामवाले पदार्थ की उपस्थिति से इनकार करने में) क्या कठिनाई । टिप्पणी न्यायवैशेषिक दार्शनिक का कहना है कि किन्हीं वस्तुओं को इन वस्तुओं से अतिरिक्ति वस्तुओं से भिन्न रूप में देखना भी हमारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक इन पहली वस्तुओं में कोई एक धर्म समान भाव से न रहता हो (फिर चाहे उसे 'जाति' नाम दिया जाए वा 'अन्य से भेद'); इसके उत्तर में बौद्ध का कहना है कि एक वस्तु का वास्तविक स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है (अर्थात् यह वस्तु दूसरी सभी वस्तुओं से भिन्न अतः सर्वथा शब्दअगोचर है) और इसका अर्थ यह हुआ कि किन्हीं वस्तुओं को इन वस्तुओं से अतिरिक्त वस्तुओं से भिन्न रूप में देखना भी एक प्रकार की भ्रान्ति है । अभ्रान्तजातिवादे तु न दण्डाद् दण्डिवद् गतिः । तद्वत्युभयसाङ्कर्ये न भेदाद् वोऽपि तादृशम् ॥६५१॥ यदि 'जाति' को एक अभ्रान्त पदार्थ मान लिया जाए तो जाति के ज्ञान से जातिवाली वस्तु का ज्ञान उसी प्रकार असंभव होना चाहिए जैसे दण्ड के ज्ञान से दण्डधारी व्यक्ति का ज्ञान असंभव होता है । कहा जा सकता है कि हमें जाति तथा जातिवाली वस्तु का ज्ञान परस्परमिश्रित भाव से होता है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि तब तो प्रस्तुत वादी द्वारा कल्पित यह ज्ञान भी वैसा ही हुआ (अर्थात् भ्रान्त ही हुआ) और वह इसलिए कि प्रस्तुत वादी के अनुसार जाति तथा जातिवाली वस्तु दो परस्पर भिन्न पदार्थ हैं (परस्पर मिश्रित पदार्थ नहीं) । अन्ये त्वभिदधत्येवं वाच्यवाचकलक्षणः । अस्ति शब्दार्थयोर्योगस्तत्प्रतीत्यादितस्तत:१ ॥६५२॥ कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि एक शब्द तथा उसके अर्थ के १. ख का पाठ : “दि तत् ततः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .


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