Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 241
________________ २१० शास्त्रवार्तासमुच्चय विषयभूत पदार्थ से अभिन्न मान बैठने की बात प्रस्तुत वादी इसलिए करता है कि एक शब्द द्वारा (अर्थात् एक शब्दविषयक ज्ञान द्वारा) विकल्पवासना की (अर्थात् पूर्वानुभूत विकल्पात्मक ज्ञान के संस्कार की) जागृति होती है; लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि ऐसा इसलिए नहीं कि एक शब्द द्वारा एक विकल्पवासना की जागृति होना संभव नहीं । टिप्पणी-बौद्ध का कहना है कि एक प्रत्यक्षज्ञान के समय होनेवाला शब्दज्ञान ज्ञाता के मन में किसी पूर्वानुभूत विकल्पात्मक ज्ञान के संस्कार जागृत कर देता है, और इसके फलस्वरूप एक ज्ञाता के लिए यह संभव बनता है कि वह एक प्रत्यक्षज्ञान के विषय का घोटाला एक विकल्पात्मक ज्ञान के विषय के साथ करें । अगली कारिकाओं में हरिभद्र इस मान्यता का खंडन करते हैं और उन्हें समझते के लिए हमें पिछली वे सब बातें याद करनी पड़ेगी जो उन्होंने क्षणिकवादी के कार्यकारणभाव संबंधी सिद्धान्त के खंडन के प्रसंग में कही थी। संक्षेप में, हरिभद्र कहेंगे "शब्दज्ञान ज्ञाता के मन में पूर्वानुभूत विकल्पात्मक ज्ञान का संस्कार जागृत करता है यह मानने का अर्थ यह हुआ कि शब्दज्ञान ज्ञाता के मन में एक ऐसे ज्ञान को जन्म देता है जो इस मन में उक्त विकल्प को जन्म देता है; लेकिन किसी कार्य को जन्म देने के लिए एक उपादानकारण तथा एक सहकारिकारण की आवश्यकता है जबकि क्षणिकवादी की समझ इस प्रश्न पर अत्यंत भ्रान्त है कि एक उपादानकारण एक सहकारिकारण की सहायता से एक कार्य को जन्म कैसे देता है ।" विशिष्टं वासनाजन्म बोधस्तच्च न जातुचित् । अन्यतस्तुल्यकालादेविशेषोऽन्यस्य नो यतः ॥६५५॥ बात यह है कि एक विशिष्ट प्रकार के वासनाजन्म को ही वासनाजागृति कहते हैं, लेकिन ऐसे विशिष्ट प्रकार का वासनाजन्म (प्रस्तुत वादी के मतानुसार) संभव ही नहीं होना चाहिए और वह इसलिए कि वासनागत (वासनामूलक उक्त ज्ञानगत) उक्त विशिष्टता को जन्म न तो एक समकालीन सहकारिकारण दे सकता है न एक असमकालीन सहकारिकारण । निष्पन्नत्वादसत्त्वाच्च द्वाभ्यामन्योदयो न सः । उपादानाविशेषेण तत्स्वभावं तु तत्कुतः ॥६५६॥ १. क का पाठ : तत्कृतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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