Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 242
________________ ग्यारहवाँ स्तबक २११ उक्त विशिष्टता को जन्म एक समकालीन सहकारिकारण तो इसलिए नहीं दे सकता कि उस कारण के जन्म के समय वह विशिष्टता अस्तित्व में आ चुकी और एक असमकालीन सहकारिकारण इसलिए नहीं कि उस विशिष्टता के जन्म के समय वह सहकारिकारण उपस्थित नहीं । सहकारिकारण तथा उपादानकारण (= उक्त वासनामूलक ज्ञान का उपादानकारण) दोनों मिलकर भी उक्त विशिष्टता को जन्म नहीं दे सकते और वह इसलिए कि (प्रस्तुत वादी की. मान्यतानुसार) यह उपादानकारण इस सहकारिकारण की अनुपस्थिति में जैसा रहना चाहिए ठीक वैसा ही वह उसकी उपस्थिति में भी रहता है । और यदि कहा जाए कि उपादानकारण का यह स्वभाव ही है कि वह (सहकारिकारण से किसी प्रकार की सहायता पाए बिना) उक्त विशिष्टता को जन्म दे तो हम पूछते हैं कि उपादान कारण में यह स्वभाव कहाँ से आया । न ह्युक्तवत् स्वहेतोस्तु स्याच्च नाश: सहेतुकः । इत्थं प्रकल्पने न्यायादत एव न युक्तिमत् ॥६५७॥ न यही कहा जा सकता है कि उपादानकारण अपने हेतु से ही उक्त स्वभाववाला होकर उत्पन्न होता है (अर्थात् इस स्वभाववाला कि वह सहकारिकारण से किसी प्रकार की सहायता पाए बिना ही उक्त विशिष्टता को जन्म दे), दूसरे, इस प्रकार की युक्तिसरणि अपनाने पर प्रस्तुत वादी यह मानने पर बाध्य होगा कि नाश सहेतुक हुआ करता है (क्योंकि तब तो कहा जा सकेगा कि यद्यपि एक वस्तु के विनाश का कोई कारण अवश्य होता है लेकिन यह वस्तु अपने हेतु से ही ऐसे स्वभाववाली होकर उत्पन्न होती है कि वह इस विनाशकारण से किसी प्रकार की सहायता पाए बिना ही नष्ट हो) । अतएव प्रस्तुत वादी का उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं । अनभ्युपगमाच्चेह तादात्म्यादिसमुद्भवाः । न दोषा नो न चान्येऽपि तद्भेदाद् हेतुभेदतः ॥६५८॥ और एक शब्द तथा उसके अर्थ के बीच तादात्म्य आदि सम्बन्ध मानने की कल्पना में जो दोष बतलाए गए वे हमारे मत पर लागू नहीं होते, क्योंकि उक्त प्रकार की कल्पना हमें इष्ट ही नहीं इसी प्रकार; ऊपर गिनाए गए दूसरे दोष भी हमारे मत पर लागू नहीं होते, क्योंकि हमारे मतानुसार शब्दों के (अर्थात् वाक्यों के) बीच भेद का कारण कारणभेद हुआ करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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