Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 228
________________ दसवाँ स्तबक १९७ में यह शङ्का पापवश उठती है कि कहीं उनका कर्ता कोई अदृश्य व्यक्ति तो नहीं) । अपौरुषेयताऽप्यस्य नान्यतो ह्यवगम्यते । कर्तुरस्मरणादीनां व्यभिचारादिदोषतः ॥६२० ॥ सचमुच, वेद की अपौरुषेयता का ज्ञान भी एक सर्वज्ञ व्यक्ति को छोड़कर अन्य कोई नहीं करा सकता; क्योंकि इस संबंध में प्रस्तुत वादी द्वारा उपस्थित किए गए अनुमान में 'कर्ता की स्मृति का न होना' आदि हेतु व्यभिचार आदि दोषों से दूषित हैं । टिप्पणी-मीमांसक का एक तर्क है कि वेद अकर्तृक हैं क्योंकि उनके कर्ता का हमें स्मरण नहीं इस पर हरिभद्र का उत्तर है कि जिस ग्रंथ के कर्ता का हमें स्मरण नहीं उसका भी सकर्तृक होना संभव है । नाभ्यास एवमादीनामपि कर्ताऽविगानतः १ । स्मर्यते च विगानेन हन्तेहाप्यष्टकादयः ॥ ६२१॥ 'अभ्यासः कर्मणां सत्यम्' इत्यादि श्लोकों के कर्ता की स्मृति के सम्बन्ध में भी लोगों की एकमतता नहीं ( लेकिन फिर भी हम यह नहीं कहते कि ये श्लोक अपौरुषेय हैं) । उत्तर दिया जा सकता है कि उक्त श्लोकों के कर्ता की स्मृति के संबन्ध में कुछ लोगों की एकमतता तो है, लेकिन तब हम कहेंगे कि कुछ लोगों की एकमतता तो अष्टक आदि की वेदकर्ता रूप में स्मृति के संबन्ध में भी है । टिप्पणी- प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र जिस श्लोक का निर्देश कर रहे हैं वह उनके समय में अज्ञातकर्तृक अथवा संदिग्धकर्तृक के रूप में प्रसिद्ध रहा होगा । पूरा श्लोक है— अभ्यासः कर्मणां सत्यमुत्पादयति कौशलम् । धात्राऽपि तावदभ्यस्तं यावत् सृष्टा मृगेक्षणा ॥ उत्तरार्ध का एक पाठान्तर है । मिथ्या तत् तादृशी येन न धात्रा निर्मिताऽपरा । १. क का पाठ : कर्ता विगानतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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