Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 233
________________ २०२ शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं तत्रापि तद्भावे न विरोधोऽस्ति कश्चन । तद्व्यक्तार्थाविरोधादौ ज्ञानभावाच्च साम्प्रतम् ॥६३५॥ इसी प्रकार (सर्वज्ञ) शास्त्रकारों का भी अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में प्रतिभाजन्य ज्ञान से सम्पन्न होना कोई असंभव बात नहीं; यह इसलिए भी कोई असंभव बातें नहीं कि इन शास्त्रकारों द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं के संबन्ध में आज भी हम यह पाते हैं कि उनका खंडन हमारा कोई दूसरा ज्ञान नहीं करता (तथा उनका समर्थन हमारे दूसरे ज्ञान करते हैं)। सर्वत्र दृष्टे संवादाददृष्टे नोपजायते । ज्ञातुर्विसंवादाशङ्का तवैशिष्ट्योपलब्धितः ॥६३६॥ जिस व्यक्ति की दृश्य वस्तु विषयक सभी मान्यताएँ अनुभवसंगत सिद्ध होती हैं उस व्यक्ति की अदृश्य वस्तु विषयक मान्यताओं के संबन्ध में यह शंका नहीं उठती कि वे कदाचित् अनुभवसंगत न सिद्ध हों; यह इसलिए कि इस व्यक्ति में एक विशिष्टता (अर्थात् अनुभवसंगत बात कहना) हम पा चुके । वस्तुस्थित्याऽपि तत् तादृग् न विसंवादकं भवेत् । यथोत्तरं तथा दृष्टेरिति चैतन्न सांप्रतम् ॥६३७॥ वस्तुस्थितिवश भी प्रतिभाजन्य ज्ञान अनुभवविरुद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि अन्यत्र (अर्थात् उत्तम वैद्य आदि के दृष्टान्त में) हम आजमा चुके कि प्रतिभाजन्य ज्ञान अनुभवसंगत होता है; ऐसी दशा में पूर्वपक्षी का निम्नलिखित कथन उचित नहीं। सिद्धयेत् प्रमाणं यद्येवमप्रमाणमथेह किम् । न ह्येकं नास्ति सत्यार्थं पुरुषे बहुभाषिणि ॥६३८॥ "यदि इस प्रकार कोई व्यक्ति प्रामाणिक सिद्ध हो सकता है तो अप्रामाणिक व्यक्ति कौन होगा ? क्योंकि बहुतेरा बोलनेवाले किसी भी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह स्थिति नहीं कि उसकी कही हुई एक भी बात सच न हो।" टिप्पणी—प्रस्तुत वादी का आशय यह है कि किन्हीं धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में कही गई कुछ बातें यदि आज सच होती पाई जाएँ तो इसका अर्थ यह नहीं कि इन ग्रन्थों में कही गई सभी बातें सच होनी चाहिए। यत एकं न सत्यार्थं किन्तु सर्व यथाश्रुतम् । यत्रागमे प्रमाणं स इष्यते पण्डितैर्जनैः ॥६३९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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