Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 226
________________ दसवाँ स्तबक १९५ तस्माद् व्याख्यानमस्येदं स्वाभिप्रायनिवेदनम् । जैमिन्यादेर्न तुल्यं किं वचनेनापरेण वः ॥६१२॥ इस प्रकार वैदिक वाक्यों की ये-वे व्याख्याएँ जैमिनि आदि व्याख्याकारों के अपने अपने अभिप्रायों का निवेदन मात्र है; और इस रूप में वे आपके (अर्थात् आपके-हमारे) किसी भी दूसरे वाक्य के ठीक समान क्यों न हो (क्योंकि आपका-हमारा प्रत्येक वाक्य आपके-हमारे अभिप्राय का निवेदन मात्र है) ? एष स्थाणुरयं मार्ग इति वक्तीह कश्चन । अन्यः स्वयं ब्रवीमीति तयोर्भेदः परीक्ष्यताम् ॥६१३॥ कोई एक व्यक्ति कहता है 'यह ढूंठ बतला रहा है कि यह रास्ता है', कोई दूसरा व्यक्ति कहता है 'मैं बतला रहा हूँ (कि यह रास्ता है)'; इन दो व्यक्तियों के बीच क्या अन्तर है इसकी परीक्षा होनी चाहिए । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि कोई व्याख्याकार भी किसी ग्रंथ का वही अर्थ करेगा जो उसे ठीक प्रतीत होगा, और फिर चाहे वह व्याख्याकार 'प्रस्तुत ग्रन्थ यह कहता है' की भाषा बोले या 'मुझे प्रस्तुत ग्रंथ यह कहता प्रतीत होता है की भाषा' । न चाप्यपौरुषेयोऽसौ घटते सूपपत्तितः ।। वक्तृव्यापारवैकल्ये तच्छब्दानुपलब्धितः ॥६१४॥ फिर वेद को एक अपौरुषेय कृति मानने के पक्ष में कोई भी युक्ति नहीं, और वह इसलिए कि किसी वक्ता (=कर्ता) के क्रियाशील हुएं बिना वेदवाक्यों की उपलब्धि (रचना) संभव नहीं । वक्तृव्यापारभावेऽति तद्भावे लौकिकं न किम् । अपौरुषेयमिष्टं वो वचो द्रव्यव्यपेक्षया ॥६१५॥ यदि एक वक्ता की क्रियाशीलता अनिवार्य होने पर भी वेदवाक्यों को अपौरुषेय माना जा सकता है तो आपके (अर्थात् आपके-हमारे) द्वारा उच्चारण किए गए लौकिक वाक्यों को भी अपौरुषेय क्यों न मान लिया जाए और वह इस आधार पर कि एक शब्द द्रव्य होने के नाते नित्य (=अकर्तक) है ही ? टिप्पणी-यह एक जैन मान्यता है कि शब्द एक स्वतंत्र प्रकार का भौतिक पदार्थ है जो अन्य सभी पदार्थों की भाँति नित्य तथा अनित्य दोनों हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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