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नवाँ स्तबक
१७९ बाद आगे बढ़ अथवा पीछे हट सकती है तो कर्मबन्ध की किसी स्थितिविशेष को मोक्षोपायप्राप्ति का कारण बतलाना युक्तिसंगत नहीं ।
अत्रापि वर्णयन्त्यन्ये विद्यते दर्शनादिकः ।
उपायो मोक्षतत्त्वस्य पर: सर्वज्ञभाषितः ॥५५६॥
इस संबन्ध में भी कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि मोक्ष-प्राप्ति के सर्वश्रेष्ठ उपाय के रूप में वे दर्शन आदि (अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र) हमें उपलब्ध है ही जिनका उपदेश सर्वज्ञ व्यक्तियों ने किया है।
टिप्पणी-दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र इन तीन को जैन परम्परा मोक्ष का अनिवार्य एवं पर्याप्त कारण मानती है । यहाँ 'दर्शन' शब्द का अर्थ है धर्मश्रद्धा, 'चारित्र' शब्द का अर्थ है सदाचरण, 'ज्ञान' शब्द का अर्थ प्रसिद्ध है। यह भी माना गया है कि एक आत्मा में दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उदय इसी क्रम से हुआ करता है।
दर्शनं मुक्तिबीजं च सम्यक्त्वं तत्त्ववेदनम् ।
दुःखान्तकृत् सुखारम्भः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः ॥५५७॥
दर्शन मोक्ष का बीज है जबकि उसके पर्यायभूत शब्द माने गए हैं 'सम्यक्त्व', 'तत्त्ववेदन', 'दुःखान्तकृद्ध', 'सुखारंभ' ।
टिप्पणी-मोक्षप्राप्ति की दिशा में पहला कदम होने के कारण दर्शन को 'मोक्ष का बीज' कहा जा रहा है । जहाँ तक 'दर्शन' शब्द के प्रस्तुत पर्यायों का प्रश्न है उनमें से कोई भी धर्मश्रद्धा के भाव को उभार कर सामने नहीं लाता क्योंकि 'सम्यक्त्व' तथा 'तत्त्ववेदन' ये दो शब्द इतना ही सूचित करते हैं कि 'दर्शन' 'ज्ञान' से पहले की मंजिल है और 'दु:खांतकृत्' तथा 'सुखारंभ' शब्द यह कि जो यात्रा दर्शन की प्राप्ति से प्रारंभ होती है उसका अन्त मोक्षप्राप्ति में होगा । कहने का आशय यह है कि प्रस्तुत सभी शब्द प्रायः पारिभाषिक है।
अनादिभव्यभावस्य तत्स्वभावत्वयोगतः । उत्कृष्टाद्यास्वतीतासु तथा कर्मस्थितिष्वलम् ॥५५८॥ तद् दर्शनमवाप्नोति कर्मग्रन्थि सुदारुणम् । निर्भिद्य शुभभावेन कदाचित् कश्चिदेव हि ॥५५९॥ क्योंकि एक अनादि भव्य प्राणी का ही प्रस्तुतोपयोगी स्वभाव होता है
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