Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 211
________________ १८० शास्त्रवार्तासमुच्चय इसलिए कभी कभी तथा कोई कोई ही प्राणी उत्कृष्ट आदि कोटि के कर्मबन्ध की स्थितियों को पार कर तथा अपने में शुभ भावनाओं का विकास करने के फलस्वरूप कर्मग्रन्थि को काटकर दर्शन की प्राप्ति करता है। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि दर्शनप्राप्ति की आवश्यक शर्त है ग्रंथिभेद जबकि ग्रंथिभेद की आवश्यक शर्त है शुभ भावनाओं का विकास, लेकिन ग्रंथिभेद वही आत्मा कर सकेगी जो अनादि काल से (अर्थात् स्वभावतः ही) 'भव्य' कोटि में आती है । मोटे तौर पर यह भी एक जैन मान्यता है कि दर्शन-प्राप्ति के बाद कोई आत्मा उत्कृष्ट कोटि का कर्मबन्ध दुबारा नहीं प्राप्त करती । जो भी हो, यह है हरिभद्र का उत्तर प्रस्तुत वादी की इस शंका का कि सभी आत्माएँ सभी समय मोक्षोपायप्राप्ति क्यों नहीं करतीं । सति चास्मिन्नसौ धन्यः सम्यग्दर्शनसंयुतः । तत्त्वश्रद्धानपूतात्मा रमते न भवोदधौ ॥५६०॥ और ऐसा हो जाने पर (अर्थात् दर्शन प्राप्त कर लेने पर) यह सौभाग्यशाली प्राणी, जो सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है तथा जिसकी आत्मा तत्त्वश्रद्धा से पवित्र हो गई है, संसारसागर में रस नहीं पाता । टिप्पणी-जब दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को मोक्षसाधन कहा जाता है तब आशय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से है; वरना मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र भी अपने स्थान पर संभव हैं ही। स पश्यत्यस्य यद्रूपं भावतो बुद्धिचक्षुषा । सम्यक्शास्त्रानुसारेण रूपं नष्टाक्षिरोगवत् ॥५६१॥ तब उक्त प्राणी उत्तम शास्त्रों का अनुसरण करते हुए तथा अपने ज्ञाननेत्रों की सहायता से इस संसार को उसके वास्तविक स्वरूप में देख पाता है-उसी प्रकार जैसे कि नेत्ररोग से मुक्त हुआ व्यक्ति रूप को (उसके वास्तविक स्वरूप में देख पाता है)। तद् दृष्ट्वा चिन्तयत्येवं प्रशान्तेनान्तरात्मना । भावगर्भं यथाभावं परं संवेगमाश्रितः ॥५६२॥ संसार को उसके वास्तविक स्वरूप में देखने के पश्चात् यह प्राणी अपने १. क का पाठ : नष्टारिक्षोगवत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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