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दो शब्द
संवेगरंगशाला
अर्णिका पुत्र आचार्य के वर्णन में अन्य ग्रंथों में नदी में गिराने पर शूलि पर लेने का एवं खून के बिन्दू जल में गिरने पर चिंतन का वर्णन आता है जो इसमें नहीं है। पू. १५०
वसुराजा की कथा में पाठक द्वारा परिक्षा का वर्णन इसमें नहीं है। नारद का शिष्यों को पढ़ाने का वर्णन अन्य कथानकों में नहीं है। पू. १६१
बाहुबली की कथा में इन्द्र द्वारा दोनों भाईयों को समझाने का वर्णन इसमें नहीं है। इसमें दंडरत्न हाथ में आने का वर्णन है जब कि अन्य कथानकों में चक्ररत्न को याद करने का एवं फेंकने का वर्णन है। पू. १६८
स्थूलभद्र सूरि की कथा में यहां तीन पुत्रियों के स्मरण शक्ति की बात है। अन्य कथाओं में सातों बहनों के स्मरण शक्ति की बात है पृ. १९०
दृढप्रहारी की कथा में अन्य कथाओं में चार हत्या की बात है। इसमें तीन की बात है। पृ. १९२
इस प्रकार कथाओं में परिवर्तन हुआ है।
यह ग्रंथ नामानुसार आत्मा में संवेगरंग को उत्पन्न करने वाला, वृद्धि करने वाला और इसके उपदेश द्वारा स्व पर कल्याण करने वाला उत्कृष्टतम ग्रंथ है।
आराधक आत्मा को इस ग्रंथ का वांचन, मनन, चिंतन एवं इस पर आचरण कर ग्रंथकार के परिश्रम को सफल बनाकर स्व कल्याण करना चाहिए।
ताडपत्र पर इस ग्रंथ को लिखवाने वाले की जो प्रशस्ति दी है। इससे ऐसा लगता है कि उस समय ज्ञान लिखवाने वाले अति अल्प होंगे। जिससे लिखवाने वाले की ऐसी प्रशस्ति लिखी गयी है। उसने लिखवाने की उदारता की तभी यह ग्रंथ हमको उपलब्ध हुआ है।
पाठक गण इसे पढ़कर आत्म कल्याण साधे ।
यही ।
जालोर,
वि.सं. २०६४ अषाड सुद १४ दि. २९/७/२००७
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इस ग्रंथ का भाषांतर हिन्दी में छपवाने के बाद मूल प्रत भी छपवाने का विचार हुआ। अतः इसे छपवाया है। इसमें अशुद्धियों को सुधारने का प्रयत्न किया है। पत्रकार में ३०८९ का श्लोक छपा ही नहीं था। पाटण भंडार में से मुनि श्री | जंबुविजयजी द्वारा श्लोक प्राप्त हुआ सो दीया है। फिर भी अशुद्धि रही हो तो विबुध वर्ग संपादक को सूचित करने का प्रयत्न
करें।
इस ग्रंथ में मंगलाचरण में श्रुत देवी को नमस्कार करने की बात है। श्रुत देवता के काउस्सग्ग का प्रचलन हो जाने से नमस्कार किया गया है। श्रुत देवता को नमस्कार कर फिर गुरु भगवंत को नमस्कार यह कितना योग्य है? इस पर चिंतन मनन आवश्यक है।
वही स्पष्टीकरण यहाँ भी समझा जा सकता है।
जयानंद
प्रतिमा शतक में इसका जो स्पष्टीकरण किया है। वहाँ स्पष्ट किया है कि श्रुत देवता को नमस्कार कर गुरु महाराज को नमस्कार तो अयोग्य होगा, यह नमस्कार जिनवाणी को है ऐसा श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी के मंगलाचरण में स्पष्टीकरण किया
वि.सं. २०६५ फागण सुद १३
शंखेश्वर
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जयानंद