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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
है फिर वह आदमी कैसा अद्भुत होगा, जो पारसमणि को ठुकरा रहा है । बुद्धिहीन आदमी ही ऐसा कर सकता है ।
महात्मा ने बहुत आग्रह किया। अति आग्रह देख कर रैदास ने कहा- यह रहा छप्पर, इसमें कहीं इस पारसमणि को खोंस दो, टांग दो । महात्मा ने वैसा ही किया ।
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दो वर्ष बीत गए । वही महात्मा पुनः रैदास के घर आया । उसने देखा, संत रैदास चमार का काम कर रहे हैं, जूते गांठ रहे हैं । उसके मन में यह कल्पना थी कि रैदास पारसमणि के योग से धनपति बन गए होंगे। अब उनके आलीशान मकान होगा । यह होगा, वह होगा । सब कुछ होगा । पर देखा रैदास का वही काम और वही धाम । न घर और न पैसा ।
महात्मा का मन उद्वेलित हो उठा। उसने सचाई को समझने का प्रयत्न किया, पर समझ नहीं पाया ।
महात्मा बोला - संतजी ! मैंने एक भेंट दी थी, वह कहां है ? रैदास ने कहा- जहां रखी है, वहीं पड़ी है। मैंने उसको छुआ तक नहीं । महात्मा असमंजस में पड़ गए। देखा, पारसमणि वहीं पड़ी है, जहां दो वर्ष पूर्व उसे टांगा था। रैदास ने उसका उपयोग ही नहीं किया । महात्मा ने सोचा- यह कैसे संभव हो सकता है कि पारसमणि पास में हो और व्यक्ति उसका उपयोग न करे ? समाधान की भाषा में उत्तर मिला- जो व्यक्ति प्रियता और अप्रियता की दुनिया में जीता है, उसके लिए ऐसा करना असंभव है, किन्तु जो व्यक्ति इस बंधन से दूर है, जिसका यह बंधन टूट गया, उसके लिए यह संभव है । वह पारसमणि की ओर देखे, उसे अतिरिक्त मूल्य दे, यह कभी संभव नहीं है ।
हमारी दुनिया दो असंभवों की दुनिया है। एक बात को छोड़ कर एक बात असंभव बनती है, दूसरी बात को छोड़ कर दूसरी बात असंभव बनती है । हम दो असंभवों के बीच अपनी यात्रा कर रहे हैं । ध्यान की यात्रा एक असंभव छोर की यात्रा है। भोग की यात्रा एक असंभव छोर की यात्रा है। प्रेक्षा ध्यान की गहराई में जाने पर असंभव लगने वाली बात संभव लगने लगती है और जो बात संभव लगती है, वह असंभव बन जाती है । यह सार परिवर्तन हो सकता है इन्द्रिय-संवर के द्वारा ।
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