Book Title: Samayik
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 195
________________ समता की चेतना का विकास १८१. की, तीसरी है-विफलीकरण की और चौथी है-सफलीकरण की । क्रोध के प्रति क्षमा या मौन, यह क्रोध के विफलीकरण की प्रक्रिया है । एक है उपशमन की प्रक्रिया । एक व्यक्ति साधना इतनी कर लेता है, क्रोध को बाहर नहीं आने देता । भीतर ही उसका उपशमन कर देता है, दबा देता है । आग तो जल रही है, पर उसको राख से ढक देता है, पता नहीं चलता कि आग जल रही क्षयीकरण की प्रक्रिया एक है क्षयीकरण की प्रक्रिया । इसमें सारे दोष क्षय हो जाते हैं, नष्ट हो जाते है किन्तु हम पहले ही चरण में क्षयीकरण की बात नहीं सोच सकते । क्रमिक साधना करनी होगी। विकास धीरे-धीरे होगा | अनेक महीनों तक ध्यान करने वाला भी क्रोध में आ सकता है, अन्यान्य वृत्तियों के चक्र में फंस सकता है। उसे देखकर लोग कह देते हैं, देखो, यह कैसा ध्यानी ! एक ओर ध्यान की साधना करता है, दूसरी ओर ऐसा व्यवहार करता है | यह विरोधाभास अवश्य है पर वे इस बात को भूल जाते हैं कि अभी यह मंजिल तक नहीं पहुंचा है, चल रहा है, वृत्तियों के विफलीकरण की बात सीख रहा है । धीरे-धीरे इन वृत्तियों से छूट जाएगा । यदि हमने यह मान लिया कि ध्यान करने वाले को गुस्सा आना ही नहीं चाहिए तो हमने भी ठीक वैसा ही विरोधाभास पाल लिया, जैसा दूसरे लोगों ने पाल रखा है । बच्चे ने पिता से कहा-पिताजी ! आज सूर्यास्त देखने चलना है । पिता बोला- मैं तो आज अभी बहुत व्यस्त हूं । कल सवेरे सूर्यास्त देखने चलेंगे । लक्ष्याभिमुख चलें सूर्यास्त देखना है, उसे सवेरे देखना है यह कितना बड़ा विरोधाभास है ! आदमी भी अनेक प्रकार के विरोधाभासों का जीवन जीता है और उनको पालता ही चला जाता है । ध्यान करने वाला अभी सिद्ध नहीं, साधक है । उसका लक्ष्य है समता की चेतना का विकास, वीतरागता की चेतना का विकास । यह विकास साधना और काल-सापेक्ष है । हजारों-हजारों जन्मों के संस्कार एक ही प्रहार से टूट जाएं, यह कभी संभव नहीं है । इसके लिए तीव्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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