Book Title: Samayik
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 193
________________ समता की चेतना का विकास १७९ | में ऐसे अनेक व्यक्ति हुए हैं, जिन्हें आदर्श और पूज्य माना गया है, क्योंकि उन व्यक्तियों ने इन सभी द्वन्द्वों-युगलों के परे का जीवन जीया है । जो इन द्वन्द्वों से अतीत होकर जीता है, वह आदर्श रूप बन जाता है । द्वन्द्व का जीवन है गाली के बदले गाली, ईंट का जवाब पत्थर से और एक की हत्या के बदले पांच की हत्या । प्रतिशोध का जीवन द्वन्द्व का जीवन है, संसार का जीवन है । यह चित्त की विषमता का जीवन है । गाली को सहना, ईंट के प्रहार को सहना, समभाव से सहना, यह है द्वन्द्वातीत जीवन । बादशाह और बीरबल जा रहे थे । साथ में शाहजादा भी था । कुछ दूर गये । गर्मी लगी । बादशाह ने अपना लिबास उतारा और बीरबल के कन्धों पर रख दिया | शाहजादे ने भी ऐसा ही किया । बीरबल शांत था । कपड़ों का भार लादे वह साथ-साथ चल रहा था । बादशाह ने व्यंग्य के स्वर में कहा-‘अरे बीरबल ! आज तो तुम एक गधे का बोझ उठाए हुए हो ।' बीरबल ने सुना । कोई दूसरा होता तो आग-बबूला हो जाता । बीरबल ने हंसते हुए कहा- 'जहांपनाह ! एक गधे का नहीं, दो गधों का भार ढो रहा हूं ।' ऐसी बात वही कह सकता है, जिसने विषमता को कम किया है । निष्कर्ष की भाषा में सोचें तो सामाजिक सन्दर्भ में भी हमने उस व्यक्ति के चिन्तन या व्यवहार को मूल्य दिया है, जिसने समतापूर्ण व्यवहार किया है, विषमता को कम करने का प्रयास किया है । शाश्वत है परिणामिक भाव समता का जागरण एक साथ नहीं होता। हर आदमी का सामान्य संस्कार है विषमता | यह रक्तगत है। इससे एक साथ छुटकारा पाना संभव नहीं है । किन्तु यदि हम सत्य के और अधिक निकट जाएं तो नया प्रकाश मिलेगा । हमारे व्यक्तित्व के दो मुख्य अंग हैं- शरीर और आत्मा । हम जीते हैं शरीर के स्तर पर और जीने के पीछे प्रकाश है आत्मा का । वह अमिट प्रकाश है, अमिट लौ है, जो कभी बुझती नहीं । शरीर एक आवरण है । वह उस प्रकाश को ढांकने का प्रयास करता है, लौ को बुझा देना चाहता है । किन्तु आत्मा की ज्योति अखंड है, अमिट है, बुझ नहीं सकती । बस, यही हमारे लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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