Book Title: Samayik
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 170
________________ १५६ अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक चाहिए | अगर व्यक्ति क्षमा करना नहीं सीखेगा, गांठ बांध लेगा तो उसका विपाक किसी न किसी बीमारी के रूप में उभरकर सामने आएगा। जीवन की कला पुण्य की स्थिति में आदमी को कैसा जीवन जीना चाहिए और पाप का परिणाम सामने आए, तब कैसा जीवन जीना चाहिए-इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन दिया | सुख और दुःख-इन दोनों स्थितियों में जो सम रहना नहीं जानता, आसक्ति और पीड़ा से मुक्त रहना नहीं जानता, वह न जीवन की कला को जानता है, न धर्म की कला को जानता है और न बन्धन से छुटकारा पाने की कला को जानता है | कर्म फल भोगने की कला ही धर्म की कला है । जो इस कला को सीख लेता है, वह बहुत दुःखों से बच सकता है । जीवन में कठिनाइयां आ सकती हैं, बीमारियां आ सकती हैं पर इन सारी परिस्थितियों में भी आदमी प्रसन्न रह सकता है । एक भिखारी सदा प्रसन्न और खुश रहता था । एक व्यक्ति ने पूछा-'अरे भाई ! तुम एक भिखारी हो, लंगड़े भी हो । तुम्हारे पास कुछ नहीं है, फिर भी तुम इतने खुश रहते हो। क्या बात है ?' वह बोला- 'बाबूजी ! भगवान् का शुक्र है कि मैं अन्धा नहीं हूं । मैं चल नहीं सकता पर देख तो सकता जिसे कठिनाइयों को भोगने की विधायक दृष्टि प्राप्त हो जाती है, वह सचमुच धर्म की कला को जान लेता है, कर्म-फल भोगने की कला को जान लेता है । किस प्रकार सुख की अवस्था में गर्व से मुक्त रहें और किस प्रकार दुःख की अवस्था में प्रसन्न रहें, दीन-हीन न बनें-यह छोटी-सी बात समझ में आ जाती है तो मानना चाहिए-जीवन जीने की सबसे बड़ी कला समझ में आ गई । सामायिक अथवा समता से अनुप्राणित जीवन जीने का यह दृष्टिकोण आचार्य कुन्दकुन्द-प्रणीत समयसार से सहज फलित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198