Book Title: Samayik
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 178
________________ १६४ अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक पूज्य गुरुदेव कहते हैं-मैंने जीवन में बहुत प्रशंसा पाई और बहत निंदा भी सुनी । अगर ये दोनों नहीं होते तो जीवन में संतुलन नहीं बनता । कोरी प्रशंसा आदमी को फूलने का मौका देती है, गर्व से भर देती है और कोरी निंदा हीन-भावना पैदा करती है । हीन भावना और अहं भावना-दोनों से वही व्यक्ति बच सकता है, जिसने अपने आप को शिक्षित कर लिया । जिसका मस्तिष्क शिक्षित हो गया, वह दोनों स्थितियों में सम रह सकता है । सम्मान और अपमान सम्मान और अपमान-ये दोनों जटिल स्थितियां हैं । सम्मान मिलता है, एक अलग प्रकार का तनाव पैदा हो जाता है । जैसे ही सम्मान मिलता है, व्यक्ति की चाल बदल जाती है । वह अकड़ कर चलता है | उसका मुंह ऊपर हो जाता है, वह मुंह उठाकर ही नहीं देखता । आकृति बदल जाती है, भाव-भंगिमा बदल जाती है | यदि मस्तिष्क शिक्षित हो जाता है तो दोनों स्थितियों में समता बनी रहती है। अपमान हो जाए तो वही बात और सम्मान मिल जाए तो वही बात । वह इस सचाई को समझ लेता है-आत्मा में न सम्मान है, न अपमान, किन्तु वह समान है | समान है इसलिए सम्मान और अपमान की कोई बात नहीं है । ये सब केवल लुभाने वाली बातें हैं और वह उनसे ऊपर उठ जाता है। वह मुझ तक नहीं पहुंचती एक दार्शनिक संत बहुत पहुंचा हुआ था । लोग उसकी बात को समझ नहीं पा रहे थे । वे बहुत बार उसके बारे में ऊटपटांग बातें भी कर जाते । उसकी निंदा भी कस्ते । ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है | लोग सुकरात के तत्त्वज्ञान को समझ नहीं पाए, जहर की प्याली पिला दी । आचार्य भिक्षु को समझ नहीं पाए, न जाने कितनी कठिनाइयां झेलनी पड़ी और कितनी निंदा हुई । आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन में जितना अपमान पाया, उतना बहुत कम लोगों के जीवन में होता होगा पर उन पर कोई असर नहीं हुआ । उस दार्शनिक संत की निंदा का स्वर बहुत दिन तक चलता रहा । एक व्यक्ति ने पूछ लिया- दार्शनिक महोदय ! आपकी इतनी निंदा होती है। क्या आपको गुस्सा नहीं आता ? आपमें हीनभावना नहीं आती ? दार्शनिक ने बहुत मार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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