Book Title: Samayik
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 148
________________ १३४ अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक - में यात्रा हो सके अध्यात्म के इस अनजाने मार्ग पर पादन्यास करने से पूर्व साधक सान्निध्या की याचना करता है । वह कहता है- भगवन् ! मैं सामायिक में उपस्थित हो रहा हूं, मैं सामायिक कर रहा हूं, आपकी सन्निधि मुझे प्राप्त हो । मैं आपकी साक्षी से इस मार्ग पर चल पड़ा हूं।" बह दखि है वह सामायिक करता है भगवान् की साक्षी से । वह पहले सान्निध्य को अपने में उतारता है । वह उस आत्मा के सान्निध्य को उपलब्ध होता है, जिस आत्मा ने सामायिक के चरम शिखर पर पहुंचकर सामायिक के उत्कर्ष को प्राप्त कर लिया है । ऐसे सान्निध्य को प्राप्त करने से कोई लाभ नहीं होता, जिसने स्वयं सामायिक का अभ्यास नहीं किया है। ऐसा सान्निध्य और अधिक असामायिक की ओर ले जाएगा । सान्निध्य का बहुत बड़ा प्रभाव होता है । एक व्यक्ति सामायिक के पथ पर चल रहा है और उसे सान्निध्य मिलता है : असामायिक की ओर ले जाने वाले व्यक्ति का, विषमता की ओर ले जाने वाले व्यक्ति का तो रास्ता छूट जाएगा और व्यक्ति भटक जाएगा । वह कहेगा-'कहां जा रहे हो ? हिंसा और उत्पीड़न किए बिना रोटी कमाकर कैसे खा सकोगे ? क्या बिना पैसे के बाल बच्चों को पढ़ा पाओगे ? क्या रहने के लिए मकान बना पाओगें? क्या आधुनिक सुख-सुविधाओं का उपयोग कर सकोगे । तुम कहां भटक गए? यह सामायिक का रास्ता गलत है।' वह व्यक्ति ऐसा भटकता है, मार्ग-च्युत होता कि सामायिक कहीं रह जाती है, पीछे छूट जाती है और वह पुनः विषम मार्ग पर अग्रसर हो जाता है।" इसलिए सान्निध्य ऐसा मिले, जो समता की ओर बढ़ा सके, आगे ले जा सके, जिससे यह सतत प्रेरणा और स्फुरणा मिलती रहे कि जीवन में यदि सामायिक उपलब्ध नहीं हुआ तो कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ। सब कुछ पाकर भी व्यक्ति दरिद्र है, यदि उसे सामायिक प्राप्त नहीं है । वह बेचारा गरीब ही बना रहा, जिसने सामायिक को उपलब्ध नहीं किया और जिसने समता का आस्वादन नहीं किया। जब हमारे सामने एक परम पवित्र आत्मा विराजमान रहती है, हमारा इष्ट होता है, उस परम आत्मा का सान्निध्य हमारे अन्तःकरण में, हमारी चेतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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