Book Title: Samayik
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 166
________________ १५२ अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक मुनि ने अपने मुंह में अंगुली डाली । जहां कुष्ठ झर रहा था, उस पर थूक के कुछ छींटे डाले । देखते-देखते वहां का हिस्सा कंचन जैसा बन गया । - मुनि कष्टों को सहते जा रहे थे। उनके अशुभ कर्म का विपाक हुआ पर वे दुःखी नहीं बने | यह है धर्म की कला । समस्या का कारण अशुभ कर्म का विपाक होने पर, दुःख के प्रस्तुत होने पर दुःखी नहीं होना, समता के साथ कर्म-फल को भोगना धर्म की कला को जाने बिना सम्भव नहीं बनता । आज का मानव उस कला से परिचित नहीं है इसीलिए समस्याएं विकराल बन जाती हैं | थोड़ा-सा सिरदर्द होता है तो व्यक्ति घरवालों की ही नहीं, पड़ौसियों की नींद भी हराम कर देता है ।। एक आदमी का रेल से अंगूठा कट गया । वह चीखा, चिल्लाया । पास बैठे एक अधिकारी ने कहा-कितने अधीर और कमजोर हो ! कल एक आदमी का सिर फट गया था । उसने उफ् तक नहीं की और तुम थोड़ा सा अंगूठा कट जाने पर भी चीख-चिल्लाकर सबको परेशान कर रहे हो । कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कर्म-फल को भोगना नहीं जानते । जो व्यक्ति अशुभ कर्म-विपाक को भोगने की.कला को जान लेता है, वह धर्म की कला को जान लेता है । कर्म के फल को कैसे भोगना चाहिए, जो इस बात को समझ लेता है, उसमें महानता और उदारता-दोनों उद्भूत हो जाती हैं | समस्या यह है-व्यक्ति कर्म-फल को भोगते समय अपने विवेक का उपयोग नहीं करता । पुण्य का उदय आता है, व्यक्ति अहंकार से भर जाता है । वह आदमी को भी आदमी नहीं समझता । यह कितनी तुच्छता है ! पुण्य के फल को भोगने का जो अविवेक है, उसमें व्यक्ति की यह मनःस्थिति बनती है । आचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण ___इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द ने जो सूत्र दिया, वह बहुत महत्वपूर्ण वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तम पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्टविहं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198