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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक मुनि ने अपने मुंह में अंगुली डाली । जहां कुष्ठ झर रहा था, उस पर थूक के कुछ छींटे डाले । देखते-देखते वहां का हिस्सा कंचन जैसा बन गया । - मुनि कष्टों को सहते जा रहे थे। उनके अशुभ कर्म का विपाक हुआ पर वे दुःखी नहीं बने | यह है धर्म की कला । समस्या का कारण
अशुभ कर्म का विपाक होने पर, दुःख के प्रस्तुत होने पर दुःखी नहीं होना, समता के साथ कर्म-फल को भोगना धर्म की कला को जाने बिना सम्भव नहीं बनता । आज का मानव उस कला से परिचित नहीं है इसीलिए समस्याएं विकराल बन जाती हैं | थोड़ा-सा सिरदर्द होता है तो व्यक्ति घरवालों की ही नहीं, पड़ौसियों की नींद भी हराम कर देता है ।।
एक आदमी का रेल से अंगूठा कट गया । वह चीखा, चिल्लाया । पास बैठे एक अधिकारी ने कहा-कितने अधीर और कमजोर हो ! कल एक आदमी का सिर फट गया था । उसने उफ् तक नहीं की और तुम थोड़ा सा अंगूठा कट जाने पर भी चीख-चिल्लाकर सबको परेशान कर रहे हो ।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कर्म-फल को भोगना नहीं जानते । जो व्यक्ति अशुभ कर्म-विपाक को भोगने की.कला को जान लेता है, वह धर्म की कला को जान लेता है । कर्म के फल को कैसे भोगना चाहिए, जो इस बात को समझ लेता है, उसमें महानता और उदारता-दोनों उद्भूत हो जाती हैं | समस्या यह है-व्यक्ति कर्म-फल को भोगते समय अपने विवेक का उपयोग नहीं करता । पुण्य का उदय आता है, व्यक्ति अहंकार से भर जाता है । वह आदमी को भी आदमी नहीं समझता । यह कितनी तुच्छता है ! पुण्य के फल को भोगने का जो अविवेक है, उसमें व्यक्ति की यह मनःस्थिति बनती है । आचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण ___इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द ने जो सूत्र दिया, वह बहुत महत्वपूर्ण
वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तम पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्टविहं ॥
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