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________________ १५१ कर्म-फल भोगने की कला है सामायिक 'आप पीकदान मंगवाएं और उसमें थूककर देखें ।'. सनत्कुमार ने पीकदान में थूका । उन्होंने देखा-लट और कीड़े किलबिला रहे हैं। सनत्कुमार ने कहा-यह क्या हुआ ? महाराज ! जिन सोलह बीमारियों को भयंकर माना जाता है, वे सारी की सारी एक साथ आपके शरीर में पैदा हो गई हैं | आपका सौन्दर्य नष्ट . हो चुका है।' परम आचरण है समता चक्रवर्ती सन्न रह गए । उनका अहकार चूर-चूर हो गया । मन वैराग्य से भर गया । वे राज-पाट को छोड़कर मुनि बन गए । कठोर साधना कर अपने आपको भावित कर लिया । (एक व्यक्ति पचास दिन भूखा रह सकता है पर सामायिक की साधना नहीं कर सकता) सामायिक की साधना सबसे कठोर साधना है । आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में लिखा-समता परमं आचरणं । परम आचरण है समता । सुख-दुःख आदि सब स्थितियों में सम रहने की साधना सहज नहीं है । सनत्कुमार सामायिक की साधना में निमग्न हो गए । एक ओर रूप का गर्व समाप्त हुआ तो दूसरी ओर समता की साधना में उत्कर्ष आ गया । धर्म की कला का निदर्शन कहा जाता है-वही बूढ़ा ब्राह्मण वैद्य का रूप बना मुनि के सामने प्रस्तुत हुआ । उसने मुनि से निवेदन किया-मुनिप्रवर ! मैं कुशल चिकित्सक हूं । दूर से ही आपको देखकर जान गया हूं-आप बीमार हैं । आप कुष्ठ जैसे भयंकर रोग से ग्रस्त हैं ? आप आज्ञा दें, मैं आपकी चिकित्सा कर आपकी काया को कंचन बना दूंगा। मुनि सनत्कुमार बोले-'वैद्यवर ! मुझे चिकित्सा की जरूरत नहीं है ।' वैद्य ने पुनः चिकित्सा का आग्रह किया । मुनि ने उसके आग्रह को स्वीकार करते हुए कहा-'वैद्यवर ! आप क्या चिकित्सा करेंगे?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003047
Book TitleSamayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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