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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिव
अहंकार की भाषा
चौकीदार का मन पसीज गया । उसने ब्राह्मण की प्रार्थना चक्रवर्ती तक पहुंचा दी । चक्रवर्ती का मन करुणा से भर गया । उन्होंने तत्काल ब्राह्मण को बुला भेजा । ब्राह्मण ने चक्रवर्ती के कक्ष में प्रवेश किया | वह चक्रवर्ती के सौन्दर्य को देखते ही स्तब्ध रह गया । ब्राह्मण एकटक चक्रवर्ती को देखने लगा । चक्रवर्ती का सोया अहंकार जाग उठा । सनत्कुमार ने ब्राह्मण से कहा-अरे ! तुम मेरे सौन्दर्य को अभी क्या देखते हो ? कल जब मैं स्नान कर, राजसी वस्त्र और अलंकार पहन राज्यसभा में रत्नजड़ित सिंहासन पर बैलूं तब मेरा सौन्दर्य देखना, तुम्हारा मन तृप्त हो जाएगा ।
चक्रवर्ती के निर्देश से ब्राह्मण के ठहरने आदि की समुचित व्यवस्थ हो गई । दूसरे दिन चक्रवर्ती ने अतिरिक्त तैयारी की, अपनी साज-सज्ज पर विशेष ध्यान दिया । वे अनेक बार शीशे में अपने सौन्दर्य को देखते रहे परखते रहे, गर्व से उन्मत्त बनते रहे । आदमी जब-जब शीशे के सामने जात है तब-तब आधा पागल-सा बन जाता है | अहंकार : परिणाम
चक्रवर्ती पूरी साज-सज्जा के साथ राज्यसभा में पहुंचे, वे राज-सिंहासन पर बैठ गए। उन्होंने ससम्मान ब्राह्मण को बुलाया । ब्राह्मण ने चक्रवर्ती को देखा । उसका मन घृणा से भर उठा | चक्रवर्ती ब्राह्मण की मुख-मुद्रा देखकर दंग रह गए । उन्होंने ब्राह्मण से कहा-आज मेरा सौन्दर्य देखने जैसा है, क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगा ? _ 'राजन् ! कल वाला सौन्दर्य चला गया । कल आप बहुत सुन्दर थे । आज सारा सौन्दर्य गायब हो गया है।' ____ चक्रवर्ती ने सोचा-बुढापे के साथ-साथ बुद्धि भी सठिया जाती है । जब कल मैं सामान्य स्थिति में था तब इसे सुन्दर लग रहा था और आज साजसज्जा से युक्त हूं तब यह कह रहा है-रूप चला गया, सौन्दर्य चला गया चक्रवर्ती ने कहा- 'ब्राह्मण ! कुछ निकट आकर देखो, गौर से देखो ।'
'राजन् ! क्या देखू ! अब वह रूप नहीं रहा ।' 'कैसे नहीं रहा ?'
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