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कर्म-फल भोगने की कला है सामायिक
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जो व्यक्ति कर्म फल को भोगता हुआ सुखी और दुःखी बनता है, वह पुनः आठ प्रकार के कर्मों को बांध लेता है |
धर्म के मर्म को वही व्यक्ति जान सकता है, जो सुख और दुःख की स्थिति में भी सुखी और दुःखी न बने । जब पुण्य का फल आता है, व्यक्ति को सुविधा और सामग्री मिल जाती है किन्तु उसमें सुखी होने का गर्व न करना सबसे बड़ी कला है । सन्दर्भ भरत चक्रवर्ती का
भरत चक्रवर्ती ने बहुत बड़े राज्य का संचालन किया । उनके पास अपार वैभव और ऐश्वर्य था। उनके पास चौदह अलभ्य रत्न थे । वैभव और विलास की समग्र सुविधाओं के अधिकारी होते हुए भी चक्रवर्ती भरत मोक्ष में गए ।
एक व्यक्ति ने भगवान् ऋषभ से पूछा-भंते ! इस परिषद् में मोक्ष में जाने वाला कौन है ?
भगवान् ने सीधा उत्तर दिया-'चक्रवर्ती भरत ।'
वह व्यक्ति इस उत्तर से क्षुब्ध हो उठा । उसने परिषद् के मध्य भगवान् पर भी पक्षपात का आरोप लगा दिया ।
भरत ने उसे मृत्यु-दंड दिया । वह घबरा गया ।
चक्रवर्ती ने कहा-इस दण्ड से बचने का एक उपाय है । अगर एक तेल से भरा कटोरा लेकर अयोध्या के सारे बाजारों में घूमो, उसमें से अक बूंद भी नीचे न गिरे और पूरे नगर में घूम कर वापस यहां आ जाओ तो मुक्तिदान-क्षमादान मिल सकता है ।
वह पूरे नगर में घूमकर सकुशल पहुंच गया, कटोरे से एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी ।
चक्रवर्ती ने पूछा-'नगर को देखा? क्या-क्या देखा? क्या-क्या सुना ?'
वह बोला-'केवल मौत को देख रहा था । केवल मौत की आवाज सुनी । न देखा, न कुछ सुना ।'
चक्रवर्ती भरत बोले-'तुम्हारे सामने एक मौत का प्रश्न था, फिर भी तुम्हारा न गाने में रस था, न नाच में रस था और न नाटक में रस था, तुम्हारा सारा रस मौत के साथ जुड़ गया । यही स्थिति मेरी है । मैं इतना बड़ा चक्रवर्ती
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